पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
यदि ग्राम-प्रमुख का तर्क वे अपने ऊपर ही आरोपित करते हैं, तो उसकी बात सच्ची प्रमाणित हो जाती है। पीढ़ियों से ज्ञान की साधना करने वाले पूर्वजों की योग्य सन्तान, गुरु सांदीपनि के मेधावी छात्र और स्वयं योगीश्वर कृष्ण के सहपाठी सुदामा, आज अपने ज्ञान से, अपने परिवार के पोषण के लिए न्यूनतम द्रव्य प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं तो सचमुच संसार में रहने के लिए, इस ज्ञान का क्या महत्त्व है कि ब्रह्म निराकार है या साकार। जीव और ब्रह्म के मध्य माया है या नहीं। माया का स्वरूप विद्या-माया है या अविद्या-माया। इन समस्याओं और प्रश्नों के समाधानों और उत्तरों से इस भौतिक जीवन की रक्षा के लिए कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। ग्राम-प्रमुख ने सच ही कहा है कि दूसरी ओर वे विद्याएं हैं, जो भूमि से अन्न उपजाती हैं, खनिज प्राप्त करती हैं, प्रकृति से प्राप्त पदार्थों के उपभोग से, हस्त शिल्प के माध्यम से, अन्य उपयोगी वस्तुएं भी प्राप्त की जाती हैं। उन विद्याओं से व्यापार का विकास होता है। व्यक्ति और समाज समृद्ध होता है। सुदामा का ज्ञान क्या करेगा इस सारे क्षेत्र में? उनके समाज को यदि उनकी विद्या से कोई लाभ नहीं है तो उनका समाज उन्हें कोई लाभ क्यों देगा? ज्ञानी का अर्थ समाज का रक्त पीने वाला, परजीवी-अमरबेल-तो नहीं है। ज्ञानी स्वयं को समाज के लिए उपयोगी नहीं बनायेगा तो समाज उसका सम्मान क्यों करेगा? जीवन का यथार्थ, जीवन के नियम बहुत कठोर हैं-वे व्यक्ति को जीवन का सत्य बड़ी क्रूरता से समझा देते हैं।
ठीक ही कहा था ग्राम-प्रमुख ने! यदि गाँव के लड़के दर्शन और काव्य का अध्ययन करेंगे तो कृषि और व्यापार का संसार छोड़कर दर्शन और काव्य का संसार खोजने के लिए निकल पड़ेंगे। और ऐसा संसार तो उन्हें वनवासी ऋषियों के आश्रमों अथवा नगर के समद समाज में ही मिल पायेगा। वे लोग ग्राम की उत्पादक संस्कृति के लिए अप्रासंगिक हो जायेंगे। सुदामा ही कहां अपने गाँव के लिए प्रासंगिक रह गये हैं? वे बड़े काव्यात्मक भाव से पौधों में खिले फूलों को निहार सकते हैं। कभी मन चाहे तो वृक्षों में दो-चार लोटे पानी डाल सकते हैं; किन्तु यदि उनसे अपेक्षा की जाये कि खेतों में हल चलायेंगे या विभिन्न ऋतुओं का शीत-ताप सहकर शारीरिक श्रम करते रहेंगे, तो यह उनके लिए सम्भव नहीं है। व्यापार नाम का काम तो वे कर ही नहीं सकते।
तो फिर क्यों लोग शताब्दियों से दर्शन की गुत्थियां सुलझाने में लगे हुए हैं? ऐसा तो सम्भव नहीं है कि समाज के लिए यह सर्वथा अनुपयोगी हो और समाज के निरन्तर और अनवरत असहयोग के बावजूद यह चिन्तन लगातार चलता रहा हो।
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