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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"आप चिन्ता न करें बाबा!'' इस बार सुदामा उत्साह से बोले। उन्होंने सुशीला के चेहरे की मुस्कान से समझ लिया था कि आज घर में भोजन की कमी नहीं है।

"आपने बताया नहीं कि इस बार कहां-कहां से घूमकर आ रहे हैं?"

बाबा ने क्षण भर सोचा, शायद उन्हें भी यही ठीक जंचा कि वे विषय बदल दें। बोले, "इस बार द्वारका चला गया था। वहीं टिक गया। काफी समय वहीं लग गया।"

"द्वारका!" सुदामा के मुख से अनायास निकला, "कृष्ण की नगरी!"

"हां! तुम्हारे कृष्ण की नगरी।" बाबा मुस्कराए, "धनाढ्य नगरी थी भई। बड़े-बड़े महालय, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं, चौड़े-चौड़े राजपथ, उद्यान- उपवन, सजे-धजे मनुष्य, रथ, हाथी, घोड़े...लगता था, नगर नहीं है, कोई मेला है-जहां हास और विलास के सिवा और कुछ नहीं है।"

"बाबा! आप भूतकाल में बोल रहे हैं।" सुदामा बोले, "क्या अब द्वारका वैसी नहीं रही?"

"शाल्व के आक्रमण के बाद वैसी नहीं रही।" बाबा धीरे-से बोले, "वैसा नृशंस आक्रमणकारी और कोई क्या होगा। सागर तट के ग्राम के ग्राम उसने जला डाले। उद्यान उजाड़ डाले। न बच्चों को क्षमा किया, न स्त्रियों को, न शस्त्रहीन नागरिकों को। पशुओं तक को उसने नहीं छोड़ा। यादवों का सारा जीवन अस्त-व्यस्त कर डाला। द्वारका के अनेक सुन्दर भवन जला डाले।" बाबा क्षण भर रुके, "यादवों की जो दुर्गति जरासंध नहीं कर पाया था, वह शाल्व ने कर डाली।"

"यह शाल्व कौन है बाबा?' सुशीला ने पूछा।

"तो तुम लोगों तक द्वारका की दुखद कहानी नहीं पहुंची?'' बाबा ने आश्चर्य से पूछा।

"कुछ हल्का-सा समाचार मिला तो था," सुदामा धीरे-से बोले, "पर विस्तार से मालूम नहीं हो सका।"

"ओह!" बाबा शून्य में घूर रहे थे, जैसे उन दृश्यों और घटनाओं को प्रत्यक्ष देख रहे हों।

"कृष्ण ने उन्हें रोका नहीं?" फिर सुशीला ने ही पूछा।

"कृष्ण वहां था कहां।" बाबा बोले, "वह द्वारका में रहता ही कितनी देर है। उसका सारा ध्यान तो आर्यावर्त की घटनाओं में ही लगा रहता है।"

"कृष्ण भी आप ही के समान घुमक्कड़ हैं क्या?"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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