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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


क्षण-भर में ही सुदामा के मन में बहुत कुछ घटित हो गया। एक ओर उनके मन में विश्वविख्यात दार्शनिक बनने की महत्त्वाकांक्षा है। उनका मन अपनी बात कहने को तड़पता रहता है। उनका लेखन चलता रहे तो वे सन्तुष्ट रहते हैं। लिखने में सहायक प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और घटना उन्हें प्रिय है। शेष सब कुछ उन्हें बाधास्वरूप लगता है। कभी-कभी तो सुशीला और बच्चे भी। पर यह तो सन्तुलित व्यवहार नहीं है। वे गृहस्थ हैं, तो ये दायित्व भी उन्हें निभाने होंगे। यदि अपने बच्चों के पक्ष से सोचें तो उनका यह दार्शनिक-लेखकीय व्यक्तित्व उनके और उनके बच्चों के बीच आड़े नहीं आ रहा क्या? बच्चों को देने के लिए उनके पास न जीवन का सुख है, न सुविधाएं। न अच्छा भोजन, न वस्त्र, न घर। एक पिता की ममता हो सकती है। वे वह भी नहीं दे पाते। अपनी रचनाएं उन्हें इतनी प्रिय हैं तो ये बच्चे भी तो उन्हीं की रचना हैं।

सुदामा के मन में तीखा धिक्कार उठा।

"उन्होंने ज्ञान को उठाकर अपनी गोद में बिठा लिया, "सुनाओ बेटे! क्या कहता है रोहित?"

"रोहित कहता है...।" अपनी बात सुनाने के उत्साह में ज्ञान जल्दी-जल्दी बोला, "तम्हारे पिता कोई काम नहीं करते। वे कहीं आते-जाते नहीं। आलसियों के समान, सदा घर पर ही पड़े रहते हैं। मेरे पिता प्रतिदिन काम पर जाते हैं। प्रतिमास उन्हें वेतन मिलता है। तुम्हारे पिता को कोई कुछ नहीं देता। क्या यह सच है पिताजी?"

बात समाप्त होते-होते ज्ञान के चेहरे पर आवेश उभर आया था। निश्चित रूप से, रोहित की इस बात से वह प्रसन्न नहीं था; किन्तु इसका प्रतिवाद करने के लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं था।

सुदामा चुपचाप अपने पुत्र का पीड़ित चेहरा देखते रहे। आज तक तो वे और सुशीला ही अनेक प्रकार से प्रतिवाद सुनते आये थे; पर क्या अब उनके बच्चों को भी यह सब सुनना पड़ेगा? रोहित-पता नहीं यह लड़का स्वयं इतना उद्दण्ड है या...पर इतना-सा बच्चा, ज्ञान के ही वय का होगा...न तो वह इतना उद्दण्ड हो सकता है, न ऐसी बात ही उसके मन में आ सकती है। उसके माता-पिता ही ऐसी बातें करते होंगे। उन्हीं से सुनकर, रोहित उन्हें ज्ञान के सामने दोहरा देता होगा-रोहित का पिता. काशीनाथ, नगर के किसी धनी व्यक्ति का भृत्य था शायद। सुदामा की इच्छा हुई, हंस पड़ें...किसी धनवान् की सेवा तो काम है; और अध्ययन-अध्यापन, चिन्तन-मनन तथा ग्रन्थों की रचना निकम्मापन और आलस्य है। ठीक है कि काशीनाथ को प्रतिमास अपने स्वामी से वेतन मिलता है, और सुदामा को प्रतिमास वेतन नहीं मिलता: क्योंकि उनका कोई स्वामी नहीं है।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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