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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


इसीलिए प्रातः वे जल्दी-से-जल्दी लिखने के लिए बैठ जाना चाहते हैं। प्रातः की आवश्यक दिनचर्या से निबटकर, सुशीला अपनी गृहस्थी में लग जाती है। बच्चे कहीं खेलने चले जाते हैं; और सुदामा सब कुछ भूलकर अपने ग्रन्थों और लेखनी में खो जाते हैं-कोई कहीं भी हो, इस समय सुदामा के लिए कोई कहीं नहीं होता।

"पिताजी! पिताजी! रोहित कहता है कि...।" ज्ञान बोलता-बोलता चौकी के ऊपर चढ़ आया।

"हैं! हैं!!" सुदामा ने हाथ बढ़ाकर बेटे को वहीं रोकने का प्रयत्न किया, "ऐसे तो तुम मेरे सारे ग्रन्थ खराब कर दोगे बेटे!"

"मेरी बात सुनो न पिताजी!" पिता की अप्रत्याशित बाधा से ज्ञान रुआँसा हो गया।

"बात तो तुम्हारी अवश्य सुनेंगे," सुदामा ने हंसकर पुत्र के सिर पर हाथ फेरा, "पर बेटे! मुझे ताल-पत्र तो समेट लेने दो। तुम अपनी आतुरता में यह तो देखते ही नहीं कि कहां क्या पड़ा है। बढ़ते आ रहे हो। ये खराब हो गये तो नये ताल-पत्र कहां से आयेंगे। तुम्हारे पिता के पास तो इतना धन है नहीं। फिर यह ग्रन्थ जो मैं लिख रहा हूं, कैसे पूरा होगा? हैं?"

"मेरी बात सुनो न पिताजी!' ज्ञान ने उसी तीव्रता से अपना रुआँसा अनुरोध दुहरा दिया।

उसकी दीनता देखकर सुदामा के मन में ममता उमड़ आयी : बेचारा बच्चा! जाने क्या कहने आया था। उसके लिए तो वह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ही रही होगी। वह क्या जानता था कि पिता के मन में कैसी-कैसी गुत्थियां हैं; वे क्या लिख रहे हैं, किसके लिए लिख रहे हैं और उनके लिए वह रचना कितनी मूल्यवान है। पिता की आर्थिक स्थिति का उसे क्या पता। इस समय वह एक बात सुनाने आया है और उसमें भी पिता बाधा डाल रहे हैं।

सदामा का मन असन्तलित रूप से द्रवित हो उठा : पिता के पास धन नहीं है, समय तो है। पुत्र थोड़ा-सा समय ही तो मांग रहा है। उसमें भी वे इतनी कृपणता दिखा रहे हैं।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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