पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
किन्तु दैवयोग से आचार्या को महारोग हो गया। अन्य लोगों के साथ-साथ आचार्या को भी अपनी निश्चित मृत्यु सामने दिखने लगी, तो अनेक बातों से पर्दा उठ गया। मृत्यु के सत्य ने, अन्य अनेक सत्यों को भी उजागर कर दिया। दोनों के सम्बन्ध स्पष्ट हो गये और उसके साथ ही प्रकट हुई आचार्या की पीड़ा। वे जब यह अपेक्षा कर रही थीं कि उनके कष्ट और पीड़ा के इन अन्तिम दिनों में आचार्य उनका साथ निभायेंगे ...प्रेमी की सान्त्वना, धैर्य और सन्तोष देंगे, रोग की यातना को अपने प्रेम के लेप से कम कर देंगे, तब आचार्य उन्हें अपने लिए अनुपयोगी मानकर किसी अन्य सखी की ओर बढ़ गये थे। आचार्या मृत्यु की घड़ियां गिन रही थीं और आचार्य अपनी नयी सखी के साथ प्रेम के उच्चतर धरातलों की खोज कर रहे थे। आचार्या इस तथ्य से परिचित थीं और अपने रोग से अधिक पीड़ित इस विश्वासघात के कारण थीं। अपनी मृत्यु के क्षणों में उन्होंने अवश्य ही आचार्य के लिए किसी सख की कामना नहीं की होगी।
आचार्य धर्मेन्द्र के चरित्र-भंजन से भी सुदामा का मन ऐसे ही दुखी हुआ था और आज आचार्य ज्ञानेश्वर...।
सुदामा अपना सिर झटककर उठ खड़े हुए...इन विद्वानों ने केवल विद्या पायी है, चरित्र नहीं पाया; इसलिए न ये ज्ञानी हो सके, न ऋषि। सुदामा कब तक इनके पीछे सिर धुनते रहेंगे। उन्हें बहुत से कार्य भी तो करने हैं।
खाट छोड़ी तो दिनचर्या आरम्भ हो गयी। पढ़ने के लिए आये छात्रों को पढ़ाया। थोड़ा-सा अभ्यास विवेक और ज्ञान को भी कराया और मुक्त मन से अपने ताल-पत्रों में आ बैठे। अब दोपहर के भोजन तक उनका कार्य निर्विघ्न चलेगा। लिखने के लिए सुदामा को यही समय उपयुक्त लगता है। उनकी इच्छा होती है कि प्रातः उठकर जितनी जल्दी सम्भव हो, वे लिखने के लिए बैठ जायें। इस समय मस्तिष्क चिन्तन के लिए सक्षम होता है। ध्यान केन्द्रित होता है। शरीर आराम नहीं मांग रहा होता। पर जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, दिन चढ़ता जाता है, उनका मस्तिष्क सोने लगता है और शरीर अलसाने लगता है। दोपहर के भोजन के पश्चात् तो वे निश्चित रूप से थोड़ी देर के लिए लेटना चाहते हैं। नींद की एक-आध झपकी ले सकें तो बहत ही अच्छा। भोजन करते ही, उठकर कहीं चल दें तो नींद नहीं आती, पर घर पर रहें तो शरीर अलसा ही जाता है। सन्ध्या होते-होते तो जैसे मस्तिष्क थककर चर हो जाता है। कछ सोचना और लिखना बहत कठिन हो जाता है। बस यही इच्छा होती है कि कोई अच्छा मित्र उनके पास आ बैठे, या वे ही कहीं, निकट ही किसी के पास हो आयें। हल्की-फुल्की मनोरंजक बातचीत हो। गम्भीर चर्चाओं की इच्छा उस समय नहीं होती।
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