पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
जब कभी कहीं, कोई ऐसी चर्चा उठती है कि किसी सम्पर्क से सुदामा को धन मिल सकता है; कोई श्रेष्ठि उन पर अनुग्रह कर सकता है तो सुदामा का मन व्याकुल हो उठता है। मन में धन प्राप्ति की बात न आयी होती तो बात और है। एक बार मन में यह बात आ जाये और सुदामा चल पड़ें तो वे अपनी दृष्टि में ही इतना गिर जाते हैं। उनकी अपनी अन्तरात्मा ही इतनी क्रूर होकर ऐसे निर्मम आघात करने लगती है कि सुदामा त्राहि-त्राहि करने लगते हैं। कल भी श्रेष्ठि धनदत्त के घर जाने की बात थी। पहले भी सुशीला कई बार कह चुकी है। सुशीला ने कई बार कहा था और वे स्वयं भी इस तथ्य से परिचित हैं कि उनके अनेक परिचित ब्राह्मण श्रेष्ठि धनदत्त से दो बातें कर लेने का अवसर खोजते रहते हैं। श्रेष्ठि कई बार सुदामा के प्रति अपना आकर्षण जता चुके हैं, पर सुदामा हर बार टाल देते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग उन्हें अहंकारी मानते हों, माना भी जा सकता है। पर उनकी चिन्तन-पद्धति ही कुछ भिन्न है। श्रेष्ठि के पास धन है, उनके पास ज्ञान। किन्तु क्या श्रेष्ठि उनसे समान धरातल पर मिलेगा? शायद नहीं। श्रेष्ठि अपने धन से सब कुछ खरीद सकता है। उसे खरीदने का ही अभ्यास है, पर ज्ञान बिकाऊ नहीं है और फिर बात मात्र सुदामा के स्वाभिमान की ही होती, तो वे श्रेष्ठि के द्वार पर दस बार चले गये होते, पर सुदामा पर समस्त बुद्धिजीवी वर्ग के सम्मान का दायित्व है। श्रेष्ठि धनदत्त के द्वार पर सुदामा का याचक बनकर जाना, समस्त बुद्धिजीवी वर्ग को कलंकित कर देगा। पर इन आचार्यों का चरित्र...
सुदामा अभी आचार्य धर्मेन्द्र का चरित्र नहीं भूले थे। आचार्य ने अपनी ब्राह्मणी की सर्वथा उपेक्षा कर, अपनी युवा सन्तानों तथा समाज के विरोध की ओर से निर्लज्ज बधिरता का स्वांग रचा। आचार्या सत्यवती से उनके सम्बन्ध बहुत बढ़ गये थे। सुदामा व्यर्थ ही किसी को कलंकित करना नहीं चाहते। वे नहीं जानते कि उन दोनों का परस्पर क्या सम्बन्ध था; किन्तु अपने परिवारों की उपेक्षा कर, दोनों का एक-दूसरे की संगति में रहना किससे छिपा था? किन्तु सुदामा ने कभी किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया। स्वयं को समझा लिया कि आचार्य धर्मेन्द्र की पत्नी साधारण शिक्षिता ब्राह्मणी हैं। ज्ञान-क्षेत्र में वे पति की सहयोगिनी नहीं हो सकतीं। ऐसे में यदि अपनी बौद्धिक आवश्यकताओं के कारण आचार्य, आचार्या सत्यवती के निकट आ गये हैं तो क्या अपराध हो गया। दोनों परिवार उनके सम्बन्धों के विषय में जानते हैं और उन्हें स्वीकार करते हैं, तो उन सम्बन्धों में कुछ भी गर्हित न रहा होगा। उनके सम्बन्धों की अवैधता तथा अनौचित्य को लेकर किया गया यह प्रचार उनके द्वेषियों का चमत्कार ही होगा। आचार्य धर्मेन्द्र की उन्नति, यश और अधिकारों को देखते हुए ज्ञान क्षेत्र में उनके अनेक विरोधी और अकारण द्वेषी पैदा हो गये थे। वे ही उन्हें कलंकित करने का प्रयत्न कर रहे हों तो क्या बड़ी बात है। यह अनुदार, संकुचित वृत्ति...।
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