पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुशीला हंस पड़ी, "नहीं, दासी का काम तो नहीं करूंगी। पार्वती के साथ गयी थी. इसलिए कह रहे हैं?" वह रुकी, "वह बेचारी तो और कुछ नहीं कर सकती, इसलिए दासी का ही काम करती है।"
"तो तुम कैसा काम खोजने गयी थी?"
"कोई भी काम। जिसके लिए किसी पढ़ी-लिखी महिला की आवश्यकता हो।"
"तुमने कुछ सोचा तो होगा।" सुदामा बोले, "ऐसे ही तो नहीं चल पड़ी होगी तुम!"
"मैंने कुछ विशेष नहीं सोचा है," सुशीला बोली, "पार्वती से बात हुई थी तो उसने यही कहा था कि हमारे गाँव में तो कोई काम है नहीं। किसी भी गाँव में नहीं होता। गाँव में केवल खेती होती है और खेतों में कम्मकरों की ही आवश्यकता होती है। पर नगर का जीवन कुछ अधिक जटिल होता है। वहां कई प्रकार के काम होते हैं। वहां के लोगों के पास धन भी अधिक होता है। गाँव का आदमी तो काम कराना ही जानता है। पैसा देते हुए उसके प्राण निकलते हैं।"
"ठीक कहती है पार्वती!" सुदामा बोले, "नगरों में कई प्रकार के काम होते हैं। वहां धन भी अधिक होता है। पर वहां के लोग गाँववालों से अधिक धूर्त भी होते हैं। किन्तु काम क्या करोगी?''
"मैंने सोचा था, किसी लड़की को पढ़ाना हो, या किसी धनी वृद्धा अथवा रोगिणी महिला को कोई ग्रन्थ पढ़कर सुनाना हो..."
"मिला कोई काम?"
"नहीं, अभी तो काम क्या, कोई आश्वासन भी नहीं मिला।" सुशीला बोली, "पार्वती के साथ गयी थी। पार्वती जिन लोगों को जानती है, या जिन घरों से उसका सम्पर्क है, वे लोग उतने सम्पन्न नहीं हैं। उन घरों में बर्तन साफ करने, कपड़े धोने, सफाई करने, खाना पकाने या इसी प्रकार के और काम हैं, जो कोई भी स्त्री कर सकती है। उसके लिए शिक्षित होने की आवश्यकता नहीं है। इन कामों में परिश्रम अधिक और पारिश्रमिक बहुत कम है।" सुशीला अपने प्रवाह में बोलती जा रही थी, "मैं सोच रही थी कि काशीनाथ से बात की जाये। वह जिस घर में काम करता है, वह कुछ सम्पन्न घर है। सम्भव है, उस घर में या उन्हीं के किन्हीं परिचितों में मेरे लिए कोई काम निकल आये।"
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