पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा को सुशीला के व्यवहार में कुछ तो असहज लग ही रहा था। इस बार वे चौंके : यह शैली तो नहीं है सुशीला की बातचीत की-
"पार्वती तो...जहां तक मैं जानता हूं, किसी के घर में दासी का काम करती है।"
"हां!" सुशीला ने आँखें दूसरी ओर फेर लीं, "मैं भी कोई काम खोजने गयी थी।"
"सुशीला!" सुदामा आगे कुछ न कह सके।
लगा, सुशीला का व्यवहार कुछ सहज होने लगा है, "हां प्रिय! मैं भी अपने लिए कोई काम खोजने गयी थी।"
"क्या आवश्यकता है तुम्हें...?" कहने को तो सुदामा कह गये, पर प्रश्न का उत्तर उन्हें भी मालूम था।
थोड़ी देर तक सुशीला स्वयं को संभालती रही। फिर भी बोलने के लिए उसे कुछ प्रयत्न करना पड़ा, "मेरे बच्चों को यदि कोई भुक्खड़ कहे, तो मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे लगता है कि हमें इतना तो उन्हें उपलब्ध कराना ही चाहिए कि कोई उन्हें भुक्खड़ न कह सके।"
"तो उसमें क्या मैं समर्थ नहीं हूं?" सुदामा ने जैसे वाचिक चिन्तन किया।
"मैं यह तो नहीं कहती।" सुशीला बोली, "आप समर्थ हैं, पर आपके सामर्थ्य को थोड़ा-सा धन अर्जित करने जैसे साधारण कार्य में लगाना, मुझे उसका अपव्यय लगता है। मैं आपकी संगिनी हूं। बच्चों की मां हूं। यदि मैं भी कुछ जुटा सकूँ, तो आप इन छोटी-मोटी चिन्ताओं से मुक्त होकर, कुछ उच्चतर कार्य कर पायेंगे, जो मैं नहीं कर सकती।"
सुदामा ने अपनी पत्नी को देखा : यह नारी अपनी शालीनता में पति से यह नहीं कह रही कि वे अपने परिवार के भरण-पोषण में असमर्थ हैं। उल्टे यह कह रही है कि ये छोटे-मोटे काम न कर, बड़े और उच्चतर कार्य करें। सचमुच वह संगिनी है उनकी।
"तो तुम दासी का काम करोगी?' सुदामा चिन्तित थे।
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