पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"क्यों?"
"बात ही कुछ ऐसी है।' सुशीला मुस्करायी, "जाने से पहले आपसे चर्चा करती तो कुछ विवाद होता, तर्क-वितर्क होता। पता नहीं, आपको अच्छा लगता या नहीं। आप उसी के विषय में सोचते रहते और आपका लेखन-कार्य हो नहीं पाता।"
"लेखन-कार्य तो वैसे भी कुछ विशेष हो नहीं पाया।" सुदामा बोले, "विवेक तुम्हारे साथ चला गया था। ज्ञान यहां अकेला पड़ गया। रोहित के साथ उसकी कुछ कहा-सुनी हो गयी तो वह मुझसे चिपक गया। लिखने का काम कैसे होता।" सुशीला का चेहरा कुछ मलिन होते देख, सुदामा ने तत्काल अपना स्वर बदला, "पर मैं ज्ञान की शिकायत नहीं कर रहा हूं।" उन्होंने हंसकर ज्ञान की ओर देखा और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा, "हमने खूब बातें कीं। मैंने ज्ञान को एक कहानी भी सुनायी।...है न ज्ञान?"
"हां मां! आज हमने पिताजी के साथ खूब मज़े किये।" ज्ञान ने हल्की-सी ताली बजाते हुए, अपना उल्लास प्रकट किया।
सुदामा मुग्ध दृष्टि से ज्ञान को देखते रहे : इस बच्चे की अपेक्षाएं कितनी कम हैं। पिता के पास थोड़ी देर बैठकर बातचीत करना भी उसके जीवन की एक घटना है। तो क्या सुदामा अपने बच्चों को इस नैसर्गिक सुख से भी वंचित करते रहे हैं?...उन्हें लगा, ज्ञान के इस व्यवहार से उनके सामने एक नयी बात खुल रही है...वे जानते हैं कि उनके मन में अपने बच्चों के लिए ममता की कमी नहीं है। पर यह तो केवल वे ही जानते हैं न। बच्चों को तो इसका पता तब ही चलता है, जब वे उसका प्रदर्शन करते हैं...और ऐसा वे कभी-कभी ही करते हैं।
पर ज्ञान के उल्लास से सुशीला अधिक प्रभावित नहीं हुई। उत्साहशून्य, ठण्डे स्वर में बोली, "अच्छा है। कभी-कभी पिताजी के साथ भी मज़े कर लिया करो।"
सुदामा को सुशीला के व्यवहार में कुछ असहज लगा। ऐसे समय में सुशीला इतनी . निरुत्साहित क्यों है? उसके मन पर कोई बोझ है क्या?...प्रातः वह नगर भी गयी थी। कहां गयी थी? क्या करने?
भोजन के पश्चात् बच्चे कुटिया से बाहर चले गये। कुटिया में एकान्त पाकर सुदामा ने पूछा, "नगर क्या करने गयी थीं सुशीला?"
"पार्वती के साथ गयी थी!"
"क्या काम था?"
"पार्वती को क्या काम होता है नगर में?" सुशीला ने पहली बार सीधे सुदामा की आँखों में देखा।
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