पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
पर निर्णायक तो बाज ही है...सुदामा सोच रहे थे...क्या कृष्ण बाज नहीं है? या वह निर्णायक नहीं है? वह कौवों को मज़ा क्यों नहीं चखाता?...
"पिताजी! ज्ञान फिर बोला, "यह रोहित भी दिन-भर कौवों के समान कांव-कांव करता रहता है पिताजी! कभी कहता है कि तुम्हारे पास कोई अच्छा खिलौना ही नहीं है और कभी कहता है, मैं बहुत भुक्खड़ हूं।"
"खिलौने की बात तो समझ में आती है पुत्र!" सुदामा आहत स्वर में बोले, "पर वह तुम्हें भुक्खड़ क्यों कहता है?"
"मैं उसके घर गया था। उसकी मां ने मुझे खाने के लिए एक केला दिया। मुझे भूख लगी थी। मैंने केला खा लिया...।"
"उन्होंने स्वयं दिया था?" सुदामा ने पूछा, "तुमने मांगा तो नहीं था?"
"नहीं! पर मन होने पर मैं कभी-कभी मांग भी लेता हूं।" ज्ञान निस्संकोच बोला, "इसमें भुक्खड़ होने की क्या बात है पिताजी!"
"कोई बात नहीं है।'' सुदामा का स्वर बहुत धीमा था, "पर तुम अपने आप किसी से कुछ मत मांगा करो बेटे!"
सुदामा का मन, अपने पास बैठे ज्ञान को भूल, इधर-उधर भटकने लगा था...वे चाहे काशीनाथ को कौवा माने और स्वयं को कोयल समझें। पर कौवा हो या कोयल-अच्छे माता-पिता तो वे ही होते हैं, जो अपने बच्चों का पालन-पोषण सुचारु रूप से करें। क्या कर रहे हैं सुदामा! अपनी उच्चता और श्रेष्ठता की भावना में खोये, बच्चों की क्या स्थिति कर दी है उन्होंने।
उन्होंने ज्ञान को अपनी भुजाओं में लेकर उसका मुख चूम लिया। उन्हें लगा कि यदि वे स्वयं को संभाल न पाये तो उनकी आँखों से आँसू बहने लगेंगे-
दोपहर के भोजन के समय तक सुशीला लौट आयी थी। विवेक उसके साथ ही था।
भोजन के लिए जब इकट्ठे बैठे तो सुदामा ने पूछा, "आज कहीं चली गयी थी क्या?"
"हां! नगर गयी थी।" सुशीला बोली, "सोचा था, लौट कर ही आपसे चर्चा करूंगी।"
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- अभिज्ञान