पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
बाहर निकलकर कुछ दूर तक तो सुदामा चलते ही चले गये। पर जब धूप अधिक लगने लगी तो ध्यान आया कि उन्हें किसी वृक्ष की छाया में बैठ जाना चाहिए। उन्होंने सुशीला से भी तो यही कहा था न कि वे बाहर खुली हवा में बैठेंगे। वह बाहर निकलकर उन्हें देखेगी, तो कहां पायेगी?
वे मुड़कर वापस अपनी कुटिया की ओर चल पड़े।
इतनी बात तो वे भली प्रकार समझ गये थे कि सुशीला की चाकरी की बात से वे बुरी तरह हिल गये हैं। पर क्यों? केवल इसलिए, क्योंकि वह स्त्री है? स्त्री के अर्थोपार्जन से सिद्धान्ततः उनका कोई विरोध नहीं था।
अपनी कुटिया के निकट ही वे शमी के वृक्ष के नीचे बैठ गये। वृक्ष घना और छायादार था। उसके तने के साथ-साथ, सफाई कर, बैठने के लिए थोड़ा स्थान सुदामा ने बना रखा था। कई बार मन में आता था कि यहां कुछ मिट्टी डालकर, इस स्थान को ऊंचा कर, बैठने के लिए एक अच्छा-सा मंच बना लिया जाये। जब कभी भी उनका गुरुकुल बनेगा, वे इस पर बैठ, छात्रों को पढ़ाया करेंगे...पर न उनके पास समय था और न उनके पास सहयोगी ही थे, जो यहां मिट्टी डाल-डालकर ऐसा स्थान बना देते।
...कृष्ण कहा करता था कि ब्रज में गोपिकाएं भी कार्य किया करती थीं। सभी
कृषक और गोप स्त्रियां कार्य करती ही हैं। पर वे लोग चाहें तो खेतों में कार्य करें, या अनाज बेचने हाट में जायें; गोधन चराएं, दूध दुहें, दूध-दही-मक्खन बेचने नगर में जायेंये सब तो उनके अपने घर के काम हैं। अपना परिश्रम, अपना उत्पादन और अपना व्यापार-उनमें से कोई दासी का काम तो नहीं करती, कोई किसी अन्य सम्पन्न परिवार में चाकरी तो नहीं करती...।
सुशीला कह रही थी कि वह इस सन्दर्भ में काशीनाथ से बात करने की सोच रही है-काशीनाथ! आज प्रातः ही सुदामा ने काशीनाथ के विषय में क्या कुछ नहीं सोचा था। उन्होंने उसे हर प्रकार से हीन और स्वयं को उच्च ठहराया था। पर अब? अब उनकी पत्नी, उसी काशीनाथ से सहायता मांगेगी, किसी छोटी-मोटी चाकरी के लिए।
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