पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
उनके मन में आया कि अभी जाकर सुशीला से कह दें कि वह कहीं नहीं जायेगी, कोई चाकरी नहीं करेगी। यह उनका आदेश है। पर आदेश! पति का पत्नी को आदेश! क्या अधिकार है पति को, पत्नी को आदेश देने का! वे दोनों समानता के आधार पर एक-दूसरे के सहयात्री हैं, मित्र हैं, संगी हैं। वे उसके साथ बातचीत कर सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, समझा सकते हैं; पर आदेश नहीं दे सकते-किन्तु क्या तर्क दें सुदामा? यह कि वे दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित हैं, इसलिए उनकी पत्नी को अर्थोपार्जन का अधिकार नहीं है। यह कि उनके बच्चों को प्रख्यात विद्वान् की सन्तानें होने के कारण भूखे मरने का अधिकार है...
पर क्यों करना चाहती है सुशीला, चाकरी? यदि सुदामा अपनी आय बढ़ा लें, यदि वे अपने बच्चों का पालन-पोषण सम्पन्नता से कर सकें...पर कैसे बढ़ा लें सुदामा अपनी आय? क्या उन्होंने पहले प्रयत्न नहीं किया? पर सुशीला के मन में यह बात आयी कहां से? पहले उसने कभी ऐसी चर्चा नहीं की। दोनों में कभी इस विषय में वार्तालाप नहीं हुआ।
सुदामा कुटिया में आये। "तुम्हें काम करने का विचार कहां से आया सुशीला?"
आकस्मिक प्रश्न के उत्तर में सुशीला ने सिर उठाकर सुदामा को देखा, "तब से यही सोचे जा रहे हैं?' वह मुस्करायी, "आज दर्शनशास्त्र की छुट्टी! ऐसे तो आपकी पुस्तक पूरी नहीं होगी।"
"आज मैं स्त्रियों द्वारा अर्थोपार्जन के दार्शनिक पक्ष पर विचार कर रहा हूं।" "यह दर्शनशास्त्र की कौन-सी शाखा है?"
"व्यावहारिक शाखा! दर्शनशास्त्र आखिर है क्या?" सुदामा के स्वर में झल्लाहट थी, "जीवन की गुत्थियां न सुलझा पाये तो उस दर्शन का हमें क्या करना है!"
"ठीक है। सुलझाइये।" सुशीला बोली, "और जिस निष्कर्ष पर पहुंचे, वह मुझे भी बता दीजियेगा।"
"तुमने बताया नहीं," सुदामा बोले, "यह विचार तुम्हारे मन में कहां से आया?"
"बाबा ने कहा था कि यदि मैं आपकी कुछ सहायता कर सकू तो आप अपने ग्रन्थ को कुछ अधिक समय दे सकेंगे।"
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