पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा अवाक् खड़े रह गये। बाबा ने सुशीला से यह कहा और सदामा से ठीक इसके विपरीत बात कही। उनसे कह गये कि वे गृहस्थी की ओर कुछ अधिक ध्यान दें ...बाबा, उन दोनों को सन्तुलन की ओर लाने का प्रयत्न कर रहे थे....
"बैठ जाइये।" थोड़ी देर बाद सुशीला ने कहा, "आप जिस बात से परेशान हैं, वह मुझसे कह-सुन क्यों नहीं लेते?"
सटामा. सशीला की ओर देखते रहे। क्या कहें कि उन्हें उसका, उनकी आर्थिक सहायता करने का प्रयत्न सुखद नहीं लग रहा। क्यों? इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं है-सिवा पुरुष के अहंकार के...
"कह-सुन लेंगे।" अन्त में सुदामा बोले, "पर अभी थोड़ी देर मुझे कुछ और मनन करना है।"
सुदामा कुटिया में रुके नहीं। बाहर चले आये और आकर फिर उसी शमी वृक्ष के नीचे बैठ गये। उनके मन में कोई हंसा भी...वे तो आकर यहां ऐसे बैठ रहे हैं, जैसे यह कोई सिद्ध-पीठ हो, और अपनी समस्या का समाधान उन्हें यहीं मिलेगा।
सुदामा पुनः अपने-आपसे वही प्रश्न पूछ रहे थे। उन्हें सुशीला का चाकरी करने का विचार क्यों इतना व्याकुल किये हुए है?-एक उत्तर तो बड़ा सीधा था कि यह परुष-प्रधान समाज है। इसमें परम्परा से, आर्थिक अधिकार, पुरुष को ही प्राप्त हैं। परिवार के पोषण के लिए अर्थोपार्जन का दायित्व पुरुष का है। यद्यपि कम्मकर महिलाओं ने इस परम्परा को तोड़ा है; पर उनका सम्बन्ध कुछ विशेष स्थिति के परिवारों और विशिष्ट व्यवसायों से रहा है। सुदामा का परिवार आर्थिक दृष्टि से चाहे कितना गया-बीता हो, किन्तु अपनी स्थिति उन परिवारों की-सी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वे अपनी सामाजिक स्थिति ऊंची मानते हैं, किन्तु उस स्थिति को बनाये रखने के लिए उनके पास आर्थिक आधार नहीं है। बिना आर्थिक आधार के, सामाजिक स्थिति बन नहीं सकती। पता नहीं, बाबा ने सुशीला को ऐसा संस्कार-तोड़क परामर्श कैसे दे दिया। न सुदामा इसे स्वीकार कर पा रहे हैं और न विरोध का ही कोई आधार उनके पास है-वे कैसे स्वीकार कर लें कि उनके परिवार की भी सामाजिक स्थिति उन्हीं घरों की-सी है, जिनकी स्त्रियां पारिश्रमिक लेकर बाहर काम करती हैं...कम्मकर महिलाएं...श्रमिक महिलाएं...
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