पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"यादव सेनाओं ने शाल्व को रोका नहीं बाबा?" सुशीला ने अपना प्रश्न दुहरा दिया।
"रोका बेटी, रोका। कृष्ण के बेटे और साथी भरसक लड़े। एक प्रकार से उन्होंने उसे पीछे हटने को बाध्य कर दिया था। तब तक कृष्ण भी लौट आया था। पर सौरान की क्षति तो हो ही चुकी थी। मैंने दूसरी बार द्वारका तब ही देखी थी। तुम कभी द्वार गये हो?"
"नहीं! अभी तक तो नहीं गया।" सुदामा धीरे-से बोले।
बाबा जैसे अपनी कल्पना में द्वारका में ही जा खड़े हुए थे, "प्रकृति ने बड़े सुन्दर सागर तट दिये हैं द्वारका को। पर यादवों ने उन तटों पर अपने भवनों और उद्यानों से उन्हें और भी सुन्दर बना दिया है। कुकुद्मीन के समय द्वारका एक साफ-सुथरा-सा कस्बा थी। पण्यजन राक्षसों के समय द्वारका एक उजड़ा हुआ सागरतट मात्र थी, जहां धन-लोलुप व्यापारी और उनके रक्षक बर्बर सैनिकों का जमघट था। और...और..." बाबा कुछ रुककर बोले, "शाल्व के आने से पहले, द्वारका एक नगरी थी, मनुष्य द्वारा निर्मित और संवरी हुई नगरी।...अब जनसंख्या भी कितनी बढ़ गयी है।" सहसा बाबा ने रुककर सुदामा की ओर देखा, "तुम्हारे ग्राम की जनसंख्या एकदम बढ़ी हुई नहीं लगती सुदामा! द्वारका में लोग हैं और भूमि नहीं है। यहां इतनी भूमि पड़ी हुई है और कोई उसे घेरता नहीं..."
"यहां जनसंख्या क्या बढ़ेगी बाबा!' सुदामा के स्वर में स्पष्ट उदासी थी, "यन तो जो लोग थे, वे भी धीरे-धीरे द्वारका, प्रभास, भृगुतीर्थ या पास के छोटे-बड़े नगरों। बसते जा रहे हैं।"
"पर क्यों?"
"काम-धन्धा कहां है यहां?" सुदामा बोले, "यहां अर्थोपार्जन के साधन हो तो यहां के लोग सम्पन्न होंगे और बाहर के लोग भी आकर बसेंगे। तब सुदामा की कुटिया के आस-पास मैदान और वन नहीं रहेंगे। यह सारी भूमि घिर जायेगी, बिक जायेगी...।"
"तुम यह सब कुछ समझते हो सुदामा! तो कुछ करते क्यों नहीं?"
"समझते तो बहुत लोग हैं, पर करना तो सबके बस का नहीं होता।" सुदामा अनासक्त भाव से बोले, "साधारण आदमी के सोचने-समझने से क्या होता है। जिनके हाथ में सत्ता होती है, वे समझने लगते हैं तो निर्माण होने लगता है। सुना है, द्वारका और उसके आस-पास मथुरा के यादव बस गये हैं। उन्होंने वन काटकर खेत बनाये हैं। गोवंश को बढ़ाया है। घोड़े पाले हैं। भवन बनाये हैं। जलपोत बनाये हैं। व्यापार बढ़ाया है। लोग वहां जाते हैं तो उन्हें काम मिलता है और काम के साथ धन मिलता है।" सुदामा ने गहरी सांस ली, "हम लोग यहां सोचते ही रह जाते हैं।... कुछ किसान हैं, कुछ छोटे-मोटे दुकानदार। आठ-दस घर हम उपाध्यायों के हैं, पर न तो कोई गुरुकुल है और न अन्तेवासी ब्रह्मचारी।... मेरा एक पड़ोसी है, भृगुदास। बेचारा द्वारका के चक्कर काट रहा है। मैंने उससे कभी पूछा नहीं। उसने भी कभी बताया नहीं। पर शायद वह वहां कोई सम्पर्क खोज रहा है। कुछ और लोग भी हैं. जो पास की नगरियों में छोटी-मोटी चाकरियां करते हैं। वहां रह नहीं सकते। आवास की सुविधा नहीं है, या फिर महंगी है। बाध्य होकर यहां रह रहे हैं।"
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