पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
फिर सोचा, पुजारी द्वारा ऐसा आदेश दिये जाने का भी तो आखिर कोई कारण होगा।... जल, सार्वजनिक उपयोग की वस्तु है। केवल ‘उपयोग' कहना शायद ठीक नहीं है। वह तो मानव-जीवन की आवश्यकता है। मार्ग चलते हुए, दो-चार कोस तक जल न मिले तो उसका महत्त्व प्रकट होने लगता है-वह तो जीवन का आधार है, सबके लिए। सम्भव है कि ऐसे यात्री भी यहां आते हों, जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात्, यह भूल जाते हों कि उनके बाद आने वालों को भी उसकी आवश्यकता है। मानव स्वभाव सचमुच बड़ा स्वार्थी है। अपने लिए तो उसे सब कुछ चाहिए और अच्छी दशा में चाहिए, पर दूसरों का तनिक भी विचार उसे नहीं आता। पशु भी अपनी आवश्यकता भर ही वस्तुएं प्रकृति से लेता है, शेष को अन्य जीवों के प्रयोग के लिए सुरक्षित रख छोड़ता है। उसका स्वार्थ इतने तक ही है कि उसे भी मिले; और मनुष्य का स्वार्थ यह है कि उसे तो मिले, अन्यों को न मिले।...पता नहीं, मनुष्य कब यह समझ पायेगा कि प्रकृति ने जो कुछ उसे दिया है, वह मात्र उसी के लिए नहीं है...उसके समकालीनों और उसके बाद आने वाली असंख्य पीढ़ियों की सामूहिक सम्पत्ति है वह। उसके तनिक भी अनावश्यक विनाश अथवा उसको दूषित करने का कोई अधिकार नहीं है उसे...।
धूप तनिक ढली तो सुदामा फिर चल पड़े। लाठी उनके हाथ में थी। लोटा और डोरी भी गठरी के साथ बांधकर कन्धे से लटका लिया था।
यात्रा का अकेलापन उन्हें कुछ अखरने लगा था। उन्हें किसी सार्थ के साथ चलना चाहिए था, या फिर किसी संघ में चले होते। इस प्रकार एकाकी चलना कुछ दूर तक तो ठीक है, पर इतनी लम्बी यात्रा...ऐसे में सुदामा को लगता है कि वे इतने अन्तर्मुखी नहीं हैं, जितना उन्हें समझा जाता है। उन्हें भी संगी-साथियों की आवश्यकता होती है। यह दूसरी बात है कि वे राह चलते लोगों से मित्रता नहीं कर पाते। नये व्यक्ति से बातचीत तब तक टालते चलते हैं, जब तक यह बहुत आवश्यक क्या...अनिवार्य ही न हो जाये।...बहुधा लोगों से वार्तालाप करने में वे इसलिए भी घबराते हैं कि वे हर किसी से तत्काल सहमत नहीं हो पाते। ऐसे में मतभेद तीखा भी हो जाता है। तब मित्रता होने के स्थान पर वैमनस्य अधिक हो जाता है। क्या लाभ?
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