पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"जय भगवान् सोमनाथ की।" पुजारी ने अभिवादन कर, गहरी दृष्टि से सुदामा को देखा।
"जय सोमनाथ।" सुदामा ने उत्तर दिया।
"पूजा करवानी है?" पुजारी की वाणी और मुद्रा से स्पष्ट था कि उसे स्वीकारात्मक उत्तर की अपेक्षा नहीं है। फिर भी शायद वह सन्देह के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ना चाहता था।
"नहीं।" सुदामा ने विनम्र स्वर में कहा, "यात्री हूं। कहीं बैठ, भोजन कर, थोड़ा सुस्ताना चाहता हूं।"
पुजारी की उनमें कोई रुचि नहीं रह गयी थी। सुदामा मन-ही-मन आँक रहे थे ...पूजा नहीं होगी, तो कोई चढ़ावा नहीं चढ़ेगा, चढ़ावा नहीं चढ़ेगा, तो पुजारी को कोई लाभ नहीं होगा...।
"जल कहां मिलेगा?" सुदामा ने पूछा।
पुजारी मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। मुड़कर उसने एक ओर अंगुली से इंगित कर दिया; और फिर कुछ सोचकर जोड़ा, "जल को दूषित मत करना और कहीं किसी वृक्ष के नीचे बैठकर खा लेना। मन्दिर में जूठन मत गिराना।"
सुदामा के जी में आया कि कहें कि वे भी सुशिक्षित हैं, ब्राह्मण हैं और सामाजिक उपयोगिता की वस्तुओं का महत्त्व जानते हैं। पर, पुजारी उनकी बात सुनने के लिए रुका नहीं था और पीछे से चिल्लाकर कुछ कहना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वैसे भी मार्ग के साथ लगते इस मन्दिर के पुजारी पर अपना महत्त्व प्रकट करना बहुत आवश्यक था क्या? क्या चाहते थे वे पुजारी से? अपने अहंकार की तुष्टि? क्यों वे एक सामान्य जन के समान सामान्य आदेशों को सुनकर स्वस्थ मन से स्वीकार नहीं कर सकते? इतना अहंकार तो ठीक नहीं। यदि वे इसी दिशा में सोचते रहे तो किसी दिन वे ताल-पत्र पर अपना परिचय लिखकर उसे अपने गले में टांग लेंगे। प्रदर्शन का विरोध भी करते हैं और प्रदर्शन की इच्छा भी होती है।
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