पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा ने सिर को झटका। वे फिर मानसिक इतिहास, भूगोल में भटक गये। उन्हें तो सुस्ताने के लिए कोई स्थान...हां! उनके मन में बात यहीं से तो चली थी कि अब यह मार्ग इतना जन-शून्य नहीं है। मार्ग के दोनों ओर बहुत गाँव बस गये हैं। मार्ग पर आवागमन भी पर्याप्त है। लगता था कि रथों, घोड़ों और सार्थवाहों की यात्राएं इस मार्ग से होती ही रहती हैं...
अब जो भी गाँव आयेगा, या गाँव न सही, कोई मन्दिर, कुआँ या बावड़ी ही सही। जल और छाया की सुविधा देखकर वे रुक जायेंगे। थोड़ा-सा कुछ भोजन कर लेंगे और कुछ सुस्ता लेंगे। तनिक धूप ढल जाये तो फिर चल पड़ेंगे।
उन्हें अधिक दूर नहीं चलना पड़ा। थोड़ी दूरी पर ही उन्हें एक शिव मन्दिर दिखाई पड़ा। मन्दिर है तो जल भी होगा ही। सुदामा ने मार्ग छोड़कर मन्दिर की पगडण्डी पकड़ ली।
मन्दिर जन-शून्य था, पर उजड़ा हुआ नहीं था। रख-रखाव से लगता था कि वहां लोग आते रहते हैं, पूजा भी होती है। तो कोई पुजारी भी होगा ही।
सुदामा ने दो बार मन्दिर की परिक्रमा कर डाली, पर उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ा। थके होने पर भी पहले उहोंने मन्दिर में स्थापित देवमूर्तियों के दर्शन किये। यद्यपि भक्तिमार्ग से उनका कोई विशेष अनुराग नहीं था, पर फिर भी देव-स्थानों के प्रति पूज्य-भाव उनके मन में था। उनकी अवज्ञा करने जैसा अहंकार उनमें नहीं था। ऐसे स्थानों पर निवेदित अपनी भक्ति को वे शिष्टाचारजन्य भक्ति कहा करते थे। भक्ति-योग अथवा भक्ति-मार्ग से सम्बद्ध विभिन्न सम्प्रदायों में ऐसी भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था; किन्तु सभ्य और शिष्ट समाज में तो इस भक्ति का स्थान होना ही चाहिए-ऐसी सुदामा की मान्यता थी...जब सामान्य-से-सामान्य मनुष्य से मिलने पर, और कम-से-कम परिचय होने पर भी आमना-सामना होते ही शिष्टाचारवश कोई-न-कोई अभिवादन होता है, तो ये तो फिर देवमूर्तियां हैं। असंख्य लोगों की श्रद्धा और भक्ति उनसे जुड़ी हुई है...।
पानी की खोज में सुदामा मन्दिर की सीढ़ियों से नीचे उतरे तो उन्हें सामने की पगडण्डी से एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। शायद वह मन्दिर का पुजारी था। सुदामा रुक गये।
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