पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
पर क्यों सोच रहे हैं सुदामा यह सब?
उन्होंने तो सदा यही माना है कि उनका लक्ष्य धन नहीं है। वे अर्थोपार्जन के लिए कभी कुछ नहीं करते और कुछ नहीं करेंगे। उनका सोना-चांदी, रत्नाभूषण, गोधन, हाथी-घोड़े, सब कुछ तो उनका ज्ञान है। प्रकृति को समझने का प्रयत्न, मनुष्य की स्थिति की खोज, सृष्टि के गुह्यतम भेदों से साक्षात्कार-सुदामा क्या हैं, कहां से आये हैं, कहां जायेंगे? जन्म से पहले भी क्या जीव की कोई स्थिति होती है? मृत्यु के पश्चात् वह कहां जाता है? इस सृष्टि का स्रष्टा कोई है क्या? यदि है, तो उसका स्वरूप क्या है? और यदि नहीं है, तो कौन चलाता है इसे? कौन बनाता है?...इन सब के बीच सोना-चांदी और हाथी-घोड़े का क्या काम?...
तो फिर क्यों सुदामा का ध्यान बार-बार अपनी विपन्नता की ओर चला जाता है? क्यों उनका मन शिकायतें करने लगता है? क्यों उनके मन में कामना जागने लगती है? बुद्धि के धरातल पर वे स्वीकार करते हैं कि भौतिक सुख, वास्तविक सुख नहीं है। यह जीवन का लक्ष्य नहीं है। सामाजिक महत्त्व, और सम्मान कोई अर्थ नहीं रखता। ज्ञान प्रमुख है, शेष सब कुछ गौण । तो फिर क्यों किसी को महत्त्व और सम्मान पाते देखकर उनके मन में तत्काल अपना अभाव उफन-उफनकर बाहर आने लगता है? जब उनके पुत्र-ज्ञान और विवेक...ब्रह्म का ही रूप हैं तो उनको दुखी अथवा उदास देखकर, उनका हृदय क्यों पिघल-पिघल जाता है...
क्या जीवन की आवश्यकताएं इतनी कठोर हैं कि उनका अभाव क्षण भर में सारा ब्रह्मज्ञान भुला देता है? क्या मनुष्य का शरीर रहते इन भावनाओं, इच्छाओं, कामनाओं, तृष्णाओं को नहीं जीता जा सकता? क्या संसार का बड़े-से-बड़ा चिन्तक, दार्शनिक, वैरागी, संन्यासी, अन्ततः मनुष्य ही है? मानव शरीर की दुर्बलताओं का पुंजमात्र? क्या इस व्यावहारिक संसार में ब्रह्मज्ञान लोगों को धोखा देने की आड़ है, या पेट भरे लोगों का शोभा-विलास? या कम जीवनी-शक्ति वाले लोगों के लिए सान्त्वना मात्र? क्या सांसारिक जीवन के लिए उसका कोई उपयोग नहीं है?
सुदामा ठहर गये। दोपहर होने को आयी थी। उन्हें कहीं थोड़ा सुस्ता लेना चाहिए। उन्होंने पहली बार सजग होकर, बाहर के संसार को देखा। अब तक तो उनकी आँखें अपने भीतर ही लगी हुई थीं। इस मार्ग पर वे बहुत दिनों से आये नहीं थे। बहुत पहले जब इधर से आये थे, तो सारा क्षेत्र अधिकांशतः वन ही था। कहीं-कहीं दो-चार कुटीर बनाकर, कुछ वनवासी लोग रहते दिखाई पड़ते थे। ग्राम तो बहुत दूर-दूर थे। पुरवे और नगर तो अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। जहां कहीं कोई राजा अपना दुर्ग बना लेता था, वहीं एक नगर बन जाता था। उसके आसपास कुछ दूरी तक कुछ ग्राम बस जाते थे। पर बड़े राजा भी कितने थे। आर्यों के राज्य तो सरस्वती, गंगा और यमुना के तटों पर ही अधिक थे। पश्चिम की ओर, उनमें से यदु के पुत्र ही बढ़े थे। शेष अधिकांशतः भार्गवों की बस्तियां थीं। जमदग्नि पुत्र परशुराम ने इस क्षेत्र में बहुत निर्माण किया था। अवन्ति के पश्चात् चेदि, विदर्भ और सौराष्ट्र...
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