पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सन्ध्या ढलने को आयी थी। अन्धकार हो जाने से पहले ही सुदामा को कहीं ठहरने का निर्णय कर लेना था...कोई मन्दिर, किसी गाँव की चौपाल, कोई धर्मशाला... इधर के लोग कुछ अधिक समृद्ध हो गये लगते थे, तभी तो मार्ग में कई धर्मशालाएं दिखाई पड़ी थीं। पहले इस मार्ग पर न नगरियां थीं, न धर्मशालाएं...आनर्त नरेश कुकुमीन के समय यह द्वारका, सागरतट पर एक साधारण-सी नगरी थी...कुशस्थली। कुकुमीन के पास न तो जलपोत थे और न जलपत्तन का कोई अच्छा प्रयोग होता था। इधर के लोगों में व्यापार भी अधिक नहीं था। तभी तो न यहां की जनसंख्या बढ़ी, न व्यापार बढ़ा और न ही समृद्धि आयी। किन्तु पण्यजन असुरों की जाति के पास सामुद्रिक शक्ति थी। उन्होंने आक्रमण कर कुकुमीन से कुशस्थली छीन ली थी। आसपास के क्षेत्रों पर भी उनका आतंक छा गया था और लोग इधर-उधर भाग गये थे। गिरिनार भी आनर्त नरेश के हाथ से निकल गया था। बलराम की सहायता से कुकुझीन ने कुशस्थली को पण्यजनों से वापस छीना था और गिरिनार भी लौटाया था। तभी मथुरा पर जरासंध और कालयवन एक साथ चढ़ आये थे। यादवों को बचाने के लिए कृष्ण को एक ही मार्ग दिखाई पड़ा था कि वे मथुरा के यादवों को किसी ऐसे स्थान पर ले जायें, जो जरासन्ध के प्रभाव-क्षेत्र से भी बाहर हो और जहां भौगोलिक दृष्टि से भी यादव, जरासंध से सुरक्षित हों। उस दृष्टि से पांचाल, अवन्ती, हस्तिनापुर, चेदि, विदर्भ...कहीं भी यादव सुरक्षित नहीं थे। आनर्त नरेश तो अपने सहायक बलराम को अपना उत्तराधिकारी बनाना ही चाह रहे थे। रेवती से बलराम का विवाह हुआ और कुकुद्मीन ने कुशस्थली मथुरा के यादवों को सौंप दी। कृष्ण ने अपने साथियों की सहायता से कुशस्थली में द्वारका-जैसा नगर बनाया।...बाबा कह रहे थे, वहां बहुत निर्माण हुआ है, बहुत सुन्दर नगर बसा है ...आसपास खेती होने लगी, पशु-पालन हुआ, व्यापार हुआ है, उद्योग बढ़ा...यादवों ने इस सारे भ-भाग का रंग-रूप ही बदल दिया...
कोई पुरवा आ गया था शायद। कई घर दिखाई दे रहे थे और मार्ग के दोनों ओर कुछ दुकानें भी थीं।
"क्यों भाई! यहां कोई धर्मशाला भी है, जहां रात-भर के लिए टिका जा सके?" सुदामा ने एक व्यक्ति को रोका।
"रात का क्या है।" वह बोला, "किसी भी पेड़ के नीचे टिक जाओ।"
"क्यों? धर्मशाला या मन्दिर नहीं है क्या?"
"है क्यों नहीं।" उस व्यक्ति ने बात अधिक नहीं बढ़ाई, "चार दुकानें और आगे बढ़ जाओ। धर्मशाला में पहुंच जाओगे।"
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- अभिज्ञान