पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
ठीक चार दुकानों के बाद धर्मशाला थी। तीन सीढ़ियों के बाद पक्का चबूतरा था। तब अनेक द्वार थे; पर उनके कपाट बन्द थे। सुदामा ने एक द्वार जा खटखटाया। वह द्वार तो नहीं खुला, पर उसके साथ वाला कपाट खुल गया और एक व्यक्ति ने अधखुले कपाट से झांककर बाहर देखा। सुदामा को उसने ऊपर से नीचे तक घूरा। उसने बाहर निकलने या सीधे खड़े होने का भी कष्ट नहीं किया। भौंहे सिकोड़कर पूछा, "क्या है?"
"धर्मशाला के प्रबन्धक से मिलना चाहता हूं।" सुदामा ने मधुर स्वर में कहा।
"क्यों? क्या काम है?" उस व्यक्ति का स्वर और भी शुष्क हो गया।
"यात्री हूं। रात के लिए टिकना चाहता हूं। यदि कोई कोठरी...।"
"कोठरी की क्या आवश्यकता है। कोई सोने के मढ़े तो हो नहीं कि कोई उठा ले जायेगा।" उस व्यक्ति ने सुदामा की बात पूरी नहीं होने दी, "यहीं किसी कोने में पड़ जाओ।"
सुदामा ने उसकी आँखों द्वारा सुझाई गयी दिशा में देखा, उसका संकेत पक्के चबूतरे की ओर था।
सुदामा खड़े देखते रहे, उस व्यक्ति ने प्रतीक्षा नहीं की। कपाट बन्द हो गये। भीतर से कुण्डी लगाने की ध्वनि भी हुई।
पहले व्यक्ति का ही सुझाव ठीक था...सुदामा सोच रहे थे...यदि ऐसे पड़े ही रहना है तो किसी भी वृक्ष के नीचे भूमि स्वच्छ कर लेटा जा सकता है। एक तो खुला स्थान होगा, और किसी की कृपा की बाट भी नहीं जोहनी होगी। ऐसे-ऐसे नकचढ़े और कटखने लोगों के मुंह भी नहीं लगना होगा।
सुदामा मार्ग पर आ गये।
थोड़ी दूर चलने पर पुरवा पीछे छूट गया। वे आगे बढ़ते गये। मार्ग संकरा होता गया और वृक्ष सघन होने लगे। वहीं उन्हें छोटी-सी एक तलैया भी दिखाई दी।
सुदामा मार्ग छोड़कर तलैया की ओर बढ़ गये।
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- अभिज्ञान