पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा जैसे-जैसे द्वारका के निकट होते जा रहे थे, उनके मन का ऊहपोह बढ़ता जा रहा था। वे जा तो रहे हैं, पर कोई उन्हें कृष्ण के पास पहुंचने भी देगा। मन्दिर का पुजारी उन्हें मन्दिर में घुसने योग्य नहीं मानता। धर्मशाला का प्रबन्धक उनके टिकने के लिए एक कोठरी की आवश्यकता नहीं समझता। द्वारका में कोई उन्हें कृष्ण से मिलने योग्य भी मानेगा या नहीं?...और यदि वे किसी प्रकार कृष्ण के सामने पहुंच ही गये तो कृष्ण उन्हें पहचान लेगा क्या? उसका महत्त्व उन्हें पहचानने में आड़े तो नहीं आयेगा? वैसे भी, कृष्ण पहचानना भी चाहे तो सम्भव है न ही पहचान पाये। आखिर कितने दिनों का संग था उनका कृष्ण के साथ? और फिर जाने उनके जैसे कितने लोग कृष्ण के सम्पर्क में प्रतिदिन आते हैं। आश्रम से चलकर कृष्ण प्रभास गया था और प्रभास से यमलोक, गुरु के पुत्र को लौटा लाने। फिर वह मथुरा की राजनीति में फंस गया था। जरासन्ध से युद्ध किये। कालयवन का नाश किया। द्वारका का निर्माण किया। यादवों के झगड़े निपटाये। रुक्मिणी का हरण किया। रुक्मिणी के पश्चात् दो और विवाह भी हुए हैं कृष्ण के। हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ की राजनीति में भी वह व्यस्त रहा है। सन्तानें भी हुई हैं उसके घर। शंबासुर, भौमासुर, शिशुपाल और कितने लोगों का वध किया है उसने। अपने कुटुम्ब के अतिरिक्त राजाओं, सेनाओं, ऋषियों, दार्शनिकों, गुरुकुलों से घिरे इस कृष्ण के अतिव्यस्त जीवन में एक सुदामा ही उसे याद रह जायेगा क्या? कैसा जीवन है कृष्ण का ...आँधी है या बवण्डर? प्रतिदिन कोई नयी घटना, नयी समस्या, नया संघर्ष। कैसे करता है इतने काम यह व्यक्ति और फिर न ऊबता है, न थकता है। सुदामा को तो दो बार
निकट की नगरी में जाना पड़े तो वे व्याकुल हो उठते हैं...।
और यदि पहचान ही लिया कृष्ण ने, तो वह पूछेगा, "कहो, कैसे आये विप्र?" क्या सम्बोधन करेगा वह...'सुदामा?'... मित्र?'...'भाई?' या मात्र ‘विप्र?' सब कुछ इसी पर तो निर्भर करता है कि वह क्या कहता है। उस एक सम्बोधन से ही कृष्ण के सारे मनोभाव प्रकट हो जायेंगे। कृष्ण तो जो कहेगा, सो कहेगा; सुदामा क्या कहेंगे उसे? किसी को एक ग्राम का भी अधिकार मिल जाये, तो वह प्रत्येक आगंतुक से पूछता है, "कहो क्या काम है?" जो भी उसके पास जाता है, अपना स्वार्थ लेकर जाता है। अधिकारी को सामने पाते ही प्रत्येक व्यक्ति याचक बन जाता है, तो अधिकारी ही क्या करे। फिर कृष्ण तो इस समय सम्राटों का नियामक बना बैठा है। उससे कितने लोग, केवल मिलने जाते होंगे? और जो मिलते होंगे, वे दूसरे-चौथे दिन मिलते होंगे, सुदामा के समान तो नहीं कि वर्षों बीत गये और कभी अपना चेहरा ही नहीं दिखाया। यह भी नहीं कह सकते कि 'द्वारका आया था; सोचा, तुमसे भी मिल चलूं।' वह पूछेगा, 'क्या करने द्वारका आये थे?' क्या उत्तर देंगे सुदामा? वे कौन नगर श्रेष्ठि हैं कि कह दें कि उनका सार्थ इधर आया था...
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