पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
बस एक ही उत्तर है उनके पास, 'तुमसे मिलने आया हूं।' पर कृष्ण पूछे या न पूछे, उसके मन में प्रश्न तो उठेंगे ही। इतने वर्षों में कृष्ण ने इतने जोखिम झेले। कितनी बार उसके प्राणों पर संकट आया। कितने ही युद्ध किये उसने। उसके विवाह हुए, सन्तानें हुईं... तब तो सुदामा कभी मिलने नहीं आये। आज क्या हो गया कि तीन दिन और तीन रातों की यात्रा कर, सुदामा बिना किसी काम के, कृष्ण से मिलने आये हैं? क्या कहेंगे सुदामा ? ओह! किस संकट में फँसा दिया सुशीला ने। इसमें सुशीला का ही क्या दोष है, वे स्वयं भी तो आना चाहते थे। क्या सचमुच उनके मन में कृष्ण से मिलने की बात कभी नहीं उठी? क्यों नहीं उठी? जब कभी कृष्ण के विषय में कुछ सुना, उनके मन में मिलने की उमंग उठी-दुःख में, सुख में । दार्शनिक समस्याओं को लेकर बार-बार उनके मन में कृष्ण से मिलने की प्रबल इच्छा उठी...कब-कब कृष्ण को याद नहीं किया उन्होंने? हां! इस बार सुशीला निमित्त बन गयी ...तो सुदामा सच-सच कह दें कि वे आर्थिक तंगी में हैं और कृष्ण से कुछ सहायता चाहते हैं ...कहने में हानि ही क्या है। आखिर कृष्ण इतने लोगों की समस्याएं सुलझाता है, इतने लोगों की सहायता करता है, इतने लोगों का पालन करता है-क्या सुदामा ही इतने पराये हैं कि उनके लिए वह कुछ नहीं करेगा? कितनी ममता है कृष्ण में-वह सबका है, सबके लिए है; क्या एक सुदामा का ही नहीं है?
क्यों नहीं कह सकते सुदामा अपने मन की? यह उनका स्वाभिमान है या अहंकार। सुदामा चेते... नहीं अहंकार की क्या बात है। वे अपना कष्ट अपने मित्र से तो कह ही सकते हैं- यादवश्रेष्ठ से न भी कह पायें, तो क्या...।
सारा कुछ इसी पर तो निर्भर है कि कृष्ण उनसे कैसा व्यवहार करता है। मान लो कृष्ण उनसे स्नेह से मिला तो क्या कहेंगे वे कृष्ण से? क्या चाहिए उन्हें ? ढेर-सा सोना? महल ? नौकर-चाकर? पर क्या करना है सुदामा को इन सबका? उन्हें इन वस्तुओं की तो तृष्णा नहीं है। यदि यह निश्चित हो जाता कि उन्हें और उनके परिवार को आवश्यकतानुसार भोजन मिलेगा, वस्त्र मिलेंगे, आवास मिलेगा, बच्चों की रुचि और आवश्यकतानुसार उन्हें शिक्षा मिलेगी, रोग की स्थिति में उपचार हो सकेगा - तो फिर क्या आवश्यकता है धन के संचय की? उनकी महत्त्वाकांक्षा तो इस क्षेत्र में नहीं है, पर जीवन की आवश्यकताओं की उपलब्धि के अनिश्चय ने कितना असुरक्षा का भाव भर दिया है उनके मन में। ऊपर चाहे उन्होंने स्वयं को कितना ही क्यों न साध रखा हो, पर विवेक के अनुशासन के तनिक-सा शिथिल होते ही उनकी भूख उभरकर सम्मुख आ जाती है। यह उनके भीतर कहीं गहरे दबी आर्थिक असुरक्षा की भावना ही तो है। शायद इसी असुरक्षा की प्रतिक्रिया में व्यक्ति इतना धन-लोलुप हो जाता है और धन-संचय को ही जीवन का लक्ष्य बना लेता है। जाने, सुदामा जैसे कितने लोग हैं इस संसार में, जिनकी वृत्ति नहीं है धन-संचय की; किन्तु इसी असुरक्षा के भाव ने उन्हें धन-लोलुप बना रखा है। ...क्या मनुष्य ऐसे समाज का निर्माण नहीं कर सकता, जहां व्यक्ति अपनी और अपने परिवार की आवश्यकताओं से निश्चिन्त होकर अपना काम करता रहे। उसके मन में संचय की इच्छा ही न जागे, वह दूसरों को वंचित कर, अपना भविष्य सुरक्षित करने का प्रयत्न न करे?-यदि ऐसा समाज बन जाये तो कोई सुदामा किसी कृष्ण की कृपा का आकांक्षी क्यों हो? वह अपना कार्य करे और निश्चिन्त रहे।
...पर ऐसे समाज के निर्माण के विषय में सुदामा ने आज तक कुछ नहीं सोचा। वे तो ब्रह्म-चिन्तन करते रहे। पर कृष्ण ने अवश्य सोचा होगा। उसने तो नया समाज बनाया है। समाज को नये सिद्धान्त और नया रूप दिया है- सुदामा कृष्ण से पूछेंगे।
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