पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
|
10 पाठक हैं |
कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा कुछ नहीं बोले...क्या कहना चाहता है वह अधिकारी?
"भगवान् न कहो, राजाधिराज न कहो, श्रीकृष्ण ही कहो, कृष्ण वासुदेव कहो।" वह प्रकट विरोध के साथ बोला, "यह क्या हुआ, कृष्ण...!"
सुदामा समझ गये कि मैत्री का अधिकार जताने में वे सीमा से कुछ आगे निकल गये थे, उन्हें मर्यादा का ध्यान भी नहीं रहा।
"भाई!" सुदामा का स्वर एकदम ही नम्र हो गया, "मैं गुरु सांदीपनि का शिष्य सुदामा हूं। श्रीकृष्ण का मित्र, गुरु भाई। इसलिए आत्मीयता में ऐसा कह गया।"
"ठीक है। पर आत्मीय लोग भी अपरिचितों के सामने सम्माननीय के सम्मान की रक्षा करते हैं।' अधिकारी का रोष अभी दूर नहीं हुआ था, "किसी और का प्रासाद होता तो तुम्हारा रूप और परिधान देखकर ही तुम्हें खदेड़ दिया जाता। पर हमारे कृष्ण वासुदेव का क्या है। जाने कैसे-कैसे मित्र हैं।...गोपाल!' उसने एक सैनिक को पुकारा, पर फिर कुछ सोचकर बोला, "अच्छा! तुम रहने दो। मैं स्वयं ही ले जाता हूं। ब्राह्मण देवता का कहना है कि ये गुरु सांदीपनि के शिष्य हैं, हमारे गोविन्द के मित्र। आओ भाई!" वह उठकर आगे-आगे चल पड़ा।
सुदामा उसके पीछे-पीछे चलते हुए सोच रहे थे...ठीक कह रहा है। किसी और का द्वार होता तो खदेड़ा क्या जाता, मारकर ही भगा दिया जाता। कितना बुरा लगा उसे अपने स्वामी को मात्र कृष्ण कहा जाना...पर स्वयं भी तो वह 'हमारे गोविन्द' और 'कृष्ण वासुदेव' कह रहा है। किसी अन्य नायक का प्रतिहारी, क्या इस प्रकार अपने स्वामी की चर्चा कर सकता है...कृष्ण राजा नहीं है, पर राजाओं से बढ़कर है। फिर भी उसका सम्बन्ध मात्र अधिकार का नहीं है...अपने प्रतिहारियों से भी उसका सम्बन्ध रागात्मक है। यह शायद वृन्दावन के उन्मुक्त वातावरण में पलने का परिणाम है-जहां मनुष्य मात्र को समान समझा जाता था। राजन्य संस्कृति में पला होता कृष्ण तो वह भी पांचाल द्रुपद के समान अपनी मैत्री केवल राजाओं से ही रखता...यह प्रतिहारी भी जानता है कि कृष्ण की मैत्री कैसे भी व्यक्ति से हो सकती है, तभी तो अपना रोष प्रकट करने के बाद भी कृष्ण के मित्र को सम्मान देने के लिए साथ आया है...।
वह एक भवन के सामने आकर रुक गया। दौवारिकों से उसने कुछ कहा और वे लोग पीछे हट गये। सुदामा ने निकट जाकर देखा : वे लोग निःशस्त्र थे। उनके पास दण्ड भी नहीं थे।
|
- अभिज्ञान