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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सैनिक अधिकारी ने भुजा फैलाकर उन्हें प्रवेश का निमन्त्रण दिया, "क्या नाम बताया आपने? सुदामा?"

सुदामा ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

"आप बैठिये, सूचना उन तक पहुंचाई जा रही है और उनका सन्देश आप तक पहुँचा दिया जायेगा।"

सुदामा ने कक्ष में प्रवेश किया। अधिकारी और दौवारिक बाहर ही रह गये।

कक्ष काफी बड़ा था और स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर चौकियां और मंच रखे हुए थे। एक बार सुदामा ने अपने वस्त्रों को देखा और फिर एक-एक कर सारे मंचों को निहारा। अन्त में एक कोने में रखी हुई एक छोटी चौकी पर इस प्रकार बैठ गये कि उनके धूल से भरे पैर फर्श पर बिछे हुए बहुमूल्य वस्त्रों पर न पड़ें...एक बार दृष्टि घुमाकर कक्ष के वैभव को देखा...लगा, उनको चक्कर आ जायेगा। सुदामा ने अपनी आँखें झुका लीं।

अधिकारी क्या कहकर गया है? पहली बार सुदामा का ध्यान उधर गया-'सूचना उन तक पहुंचाई जा रही है और उनका सन्देश आप तक पहुंचा दिया जायेगा।'...तो कृष्ण से भेंट नहीं होगी? केचल सन्देश ही मिलेगा?...अधिकारी की बात से तो यही लगता है। पर परेशान होने की बात नहीं है...अधिकारी ने यही सोचा होगा कि कृष्ण उनसे मिलेंगे। उसे क्या पता है कृष्ण का।...पर उसे पता होगा ही। सुदामा को कृष्ण से मिले तो बहुत समय हो गया है। वह तो यहीं रहता है। प्रतिदिन देखता होगा कि कृष्ण किससे मिलता है और कैसे मिलता है...।

तभी किसी के तेज़-तेज़ चलने का शब्द हुआ। पर्दा हटा और राजसी वेश में एक पुरुष ने कक्ष में प्रवेश किया। उसने द्वार पर रुककर सुदामा को देखा। तभी सुदामा ने भी उसे देखा : वह कृष्ण था, राजसी वेश में। रेशमी धोती और रेशमी पीताम्बर में, शरीर पर सोने और रत्नों के आभूषण। कन्धों तक के धुंघराले केश और उन पर मोर के मुकुट से सुशोभित मुकुट।...कृष्ण ही था...वय के अनुसार शरीर भर गया था, पर मांसल और स्थूल नहीं हुआ था...कसा हुआ दृढ़ शरीर । किशोर के स्थान पर अब वह युवक लग रहा था, युवक पुरुष...कोई और होता तो शायद इस वय में प्रौढ़ लगने लगता। स्वयं सुदामा लगने लगे थे। पर कृष्ण अभी पूर्ण युवक ही लग रहा था...।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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