पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कृष्ण की दृष्टि क्षण-भर के लिए सुदामा पर टिकी, जैसे वे इस धूल-धूसरित कृशकाय व्यक्ति में से अपने किशोर सखा को ढूंढ रहे हों।
"सुदामा!" कृष्ण ने कहा और वे आतुरता से आगे बढ़े।
इससे पहले कि सुदामा यह सोच सकें कि उन्हें क्या करना है या उनके मुख से कोई शब्द निकले, कृष्ण ने आकर उन्हें बांहों में भर लिया।
प्रतिक्रिया में सुदामा ने भी अपनी भुजाएं कृष्ण की देह के चारों ओर समेट लीं। सुदामा ने कभी नहीं सोचा था कि कृष्ण के इस जन-मोहन, राजसी रूप को वे इस प्रकार अपनी बांहों में भरेंगे। क्या करेंगे, उन्होंने यह भी नहीं सोचा था। पर कृष्ण ने सोचनेविचारने का अवसर ही कब दिया था...कृष्ण का यह आलिंगन न तो औपचारिक था, न प्रदर्शन मात्र। पूरे अनुराग और लिप्ति के साथ उन्होंने सुदामा को अपनी भुजाओं में भर लिया था...सुदामा को लगा, कृष्ण के शरीर से जैसे कुछ तरंगें उनके शरीर में प्रवेश कर रही हैं और उनका मानसिक तनाव और शारीरिक थकान-दोनों ही क्रमशः शान्त होती जा रही हैं।...चलने से पहले उन्होंने क्या-क्या नहीं सोचा था। रास्ते-भर वे ऊहापोह में डूबते-उतराते आये थे। कितनी आशंकाएं थीं, कितने प्रश्न थे...कृष्ण के एक आलिंगन ने सारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया था, सारी आशंकाएं शान्त कर दी थीं-।
"कैसे हो सुदामा?" कृष्ण ने उनसे अलग होकर पूछा।
"जैसा भी हूं, तुम्हारे सामने हूं।" सुदामा ने मुस्कराने का प्रयत्न किया।
"थके हुए हो। काफी लम्बी यात्रा करके आये हो।" कृष्ण बोले, "आओ।"
कृष्ण ने अपनी एक भुजा से उनके कन्धे घेर रखे थे और दूसरे हाथ से उन्होंने पर्दे को हटाया, "इनकी वस्तुएं मेरे कक्ष में पहुंचा दो।" उन्होंने दौवारिक से कहा।
"अतिथि-कक्ष में?" दौवारिक ने जैसे कुछ स्पष्ट करना चाहा।
कृष्ण मुस्कराए, "मेरे कक्ष में भाई।"
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