पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा का सामाजिक शिष्टाचार जागा : यह कृष्ण क्या कर रहा है। मैत्री के नाम पर कक्ष के एकान्त में, एक निर्धन ब्राह्मण का आलिंगन करना और बात है और अपने दौवारिकों-प्रतिहारियों तथा अन्य लोगों के सामने सार्वजनिक रूप से उन्हें अपनी बांहों में बांधकर चलना, इतने बड़े व्यक्ति की गरिमा के अनुकूल तो नहीं है...फिर, कृष्ण ने उस दौवारिक से कहा कि इनकी वस्तुएं पहुंचा दे। क्या वस्तुएं हैं...लाठी, लोटा-डोरी और एक गठरी। ये वस्तुएं क्या कृष्ण के कक्ष में पहुंचाई जाने योग्य हैं?...दौवारिक इसके अनौचित्य को समझ रहा था, तभी तो उसने स्पष्ट रूप से ‘अतिथि-कक्ष' के विषय में पूछा। पर कृष्ण...
"विवाह कर लिया या नहीं सुदामा?" कृष्ण पूछ रहे थे।
"कर तो लिया है।" सुदामा धीरे-से बोले, "दो बालक भी हैं। पर यही क्यों पूछ रहे हो? जीवन की एकमात्र उपलब्धि विवाह ही तो नहीं है।"
"इतने लम्बे अन्तराल के पश्चात् मिल रहे हैं हम," कृष्ण मुस्कराए, "कि समझ में नहीं आ रहा कि बात कहां से आरम्भ करें। धीरे-धीरे, शेष उपलब्धियों के विषय में भी पूलूंगा। यह तो मुझे मालूम है कि तुम ज्ञानयोग पर कोई बृहद् ग्रन्थ लिख रहे हो।"
"तुम्हें कैसे मालूम हुआ?"
"योग-शक्ति से।"
"योग से?" सुदामा चकित थे।
कृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े, "मुझसे गुरुकुल के एक तरुण आचार्य ने चर्चा की थी।"
सुदामा आश्वस्त हुए। तो उनकी चर्चा यहां तक पहुंची है।
"मेरे विवाहों के विषय में तो सूचना है न?" कृष्ण मुस्करा रहे थे।
"खूब सूचना है।" सुदामा भी मुस्कराए, "कितने हो गये अब तक?"
कृष्ण एक द्वार के सामने थमे, "भीतर आओ। बताता हूं।"
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