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पौलस्त्य

श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4639
आईएसबीएन :81-7043-433-5

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वाल्मीकि-रामायण की यह गाथा उस प्रागैतिहासिक काल की प्रतीत होती है जब दक्षिण भारत का कोंकण-प्रदेश पर्वत-घाटियों, नद-नदियों, चट्टानों, महावनों और उनमें बसने वाले वन्य-पशु-पक्षियों से ही भरा था।

POULASTYA

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


दक्षिण भारत का जो क्षेत्र आज ‘कोंकण-प्रदेश’ कहा जाता है, लगता है वाल्मीकि-रामायण की यह गाथा उसी से संबंधित है। गाथा उस प्रागैतिहासिक काल की प्रतीत होती है जब यह कोंकण-प्रदेश पर्वत-घाटियों, नद-नदियों, चट्टानों, महावनों और उनमें बसने वाले वन्य-पशु-पक्षियों से ही भरा था। मानव नामक प्राणी का तब तक वहां प्रवेश नहीं हुआ था। इसलिए पिछले कुछ समय में वहां जो दस-बारह मानव-प्राणी दिखाई पड़ने लगे हैं, उनसे वहां के वन देवता अत्यंत विस्मित हो उठे हैं।
बात है भी विस्मय की ही। ऐसे अद्भुत प्राणी उन्होंने इससे पहले देखे ही कहां थे, और कहां देखे थे उनके वे भारी-भरकम धनुष-तूणीर, लंबी कृपाणें, तीक्ष्ण प्रास ! सभी तो उनके लिए नए और विचित्र थे। किंतु इनसे भी अधिक विचित्र थीं उनकी वे विशाल कंदराएं। जो उन्होंने अपने परमसखा मय दानव की सहायता से उस विराट चट्टान को खोदकर बनवाई थीं। कंदराएं तो विचित्र थी हीं, उनसे भी अधिक विचित्र थे उनके द्वार, जो उस युग की शिल्प-कला के जीवित दृष्टांत थे। उस विराट चट्टान के रंग-रूप से उन्हें इतना अधिक मिला दिया गया था कि बंद कर दिए जाने पर यह जान सकना कठिन था कि चट्टान में कहीं कोई द्वार भी है या नहीं।

उनकी इन सब अद्भुत बातों से जहां यह परिणाम निकाल लेना भी कठिन नहीं था कि उन्हें किन्हीं अनिवार्य कारणों से विवश होकर ही अपने देश का परित्याग करना पड़ा है और अपना पीछा करने वाले सैकड़ों पैरों और खोज करती हुई सैकड़ों आंखों से बचकर ही इस सूनी घाटी में आ छिपना पड़ा है।
बात जो भी रही हो, किंतु उस शरणागत-वत्सला घाटी ने भी उन्हें अपनी गोद में आश्रय देकर पूरी तरह निर्भय कर दिया है। वे अब यहां निश्चिंत हैं, निरापद। कंदराओं के ठीक सामने ही, किसी प्राचीन महादानवी की तरह लेटी हुई एक महाशिला बिछी है, जिसे काट-छांटकर उस योग्य बना लिया गया है कि अब वे लोग प्रायः ही उस पर अपनी प्रभात और सांध्य बेलाएं बिताते दिखाई पड़ते हैं। कंदराओं के तीन तरफ हिंस्र श्वापदों से भरी सघन घाटी फैली है और चौथी तरफ प्रायः सौ हाथ दूर, लगभग पैंतीस हाथ चौड़ी एक बारहमासी जलधारा बह रही है, जिस पर वन्य वृक्षों की टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ियों का एक छोटा-सा सेतु बांध दिया गया है।

जिन दिनों की बात कह रहे हैं, तब बसंत के दिन थे। समूची घाटी तरह-तरह के रंगों से रंग उठी थी। ऐसे लगता था कि जैसे किसी अदृश्य चित्रकार ने उसकी वीथी-वीथी में घूमकर अपनी महातूलिका से जहां जैसे चाहा, रंग छिटक दिया है। उस सूखी महाशिला में भी सरस भाव जाग उठे हैं। उसके किनारे पर ही घाटी का वनदेवता-सा पलाश का एक महावृक्ष खड़ा है, जो सूनी रातों के एकांतों में ढेर-के-ढेर फूल बरसाकर अपनी इस सखी की नग्न देह को इस प्रकार ढक देता है कि प्रभात होने पर परिचित आंखें भी उसे सहज में नहीं पहचान पातीं। ऐसा भ्रम हो जाता है कि किसी लंबे प्रवास से श्रांत होकर लेटी हुई कोई महादानवी रंग-बिरंगी छींट का दुकूल ओढ़े चुपचाप सो रही है।

पलाश का यह महावृक्ष अपने अद्भुत पुष्पों के कारण इस घाटी में विशेष आदर से देखा जाता है। इसके ये पुष्प घाटी के अन्य पलाश पुष्पों से बहुत भिन्न हैं। रंग-रूप तो उनका आकर्षक है ही, एक प्रकार की ऐसी मादक गंध भी भरी है, जो अन्य पलाश-पुष्पों में नहीं पाई जाती। शायद इसलिए घाटी के पक्षी-संघ ने इसे ही वसंतोत्सव का मुख्य केंद्र चुना है। घाटी के अधिसंख्यक पंछी इसी पर एकत्रित होते हैं, इसी का मधु पीते हैं। इसी का स्तवन करते हैं।

कुछ दिनों से पास की कंदराओं में रहने वाला एक दीर्घकाय युवक भी इस महावृक्ष पर प्रतिदिन आने लगा है, जो फूलों भरी इस महाशिला पर खड़ा होकर वसंतोत्सव का उल्लास पीता दिखाई पड़ता है। उसकी निश्चिंत मुद्रा को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह अपने शेष साथियों से बहुत भिन्न है, जो अपनी कंदराओं में पड़े रहकर परस्पर दिन-भर मंत्रणाएं ही किया करते हैं, या न जाने कहां-कहां की योजनाएं बनाया करते हैं। उसने शायद अतीत के उन सब दुःखद प्रसंगों को, जिनकी स्मृति उनके शेष साथियों को प्रतिक्षण वेदनातुर बनाए रहती है, अतीत का विषय ही बन जाने दिया है और उन्हें विधि का एक अमिट विधान मानकर प्रसन्नता से ही इन नवीन परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया है। अब यह घाटी ही उसका स्वदेश है। इसके वृक्ष उसे जो फल देते हैं, वन-धेनुएं जो पुष्कल दूध देती हैं, जलधाराएं जिन स्वच्छ जलों का पान कराती हैं, वन्य-पवन जो स्वास्थ्य देती हैं, वही उसका सर्वस्व है।

यहां के पशु-पक्षी उसके मित्र हैं, बंधु-बांधव हैं, सखा हैं। यह महावृक्ष भी शायद इसीलिए उसे प्रिय है। उसे शायद परम विश्वास है कि दिव्य पुष्पों से हसंता यह महादेवता उसे अतीत की सभी चिंताओं से मुक्ति देकर उसके हृदय-पात्र को निश्चंतता के मधु से परिपूर्ण कर देगा। इसीलिए शायद वह प्रतिदिन उसकी शरण में आता है।
उस दिन भी वह इसी तरह उस महाशिला पर खड़ा था कि हठात् किसी का रूखा स्वर उसके कानों में आकर पड़ा, ‘‘कम-से-कम आज के दिन तो तुम्हें इस जांगलिक उत्सव में सम्मिलित नहीं होना चाहिए, वत्स ! यह अपराध है।’’
चौंककर युवक ने पीछे देखा। माली खड़ा था। कुछ खिसियाकर ही पूछ बैठा, ‘‘क्यों ?’’
‘‘लंका युद्ध में जिसकी कृपाण ने अभिमानी देव सेनापति का शिरच्छेद कर देव सेना के पैर उखाड़ दिए थे, उस वीराग्रणी सुमाली को भी बताना पड़ेगा कि- क्यों ? उसे क्या स्मरण नहीं, आज के ही दिन अमरावती के देवों ने असुरों के हाथ से उनकी लंका का अपहरण किया था और इसीलिए आज का यह आभागा दिन किसी भी उत्सव के लिए अशुभ है ?’’
‘‘स्मरण तो है...किंतु इस दिन बरस पुरानी लकीर को पीटते रहने से अब लाभ क्या है ? लंका तो वापस मिलने से रही। जिस दिन विष्णु के महाचक्र से लंकेश्वर माल्यवंत धराशायी हो गए थे, तभी समझ लिया गया था, लंका असुरों के हाथ से सदा के लिए निकल गई। अब तो देवों के गुप्तचरों से बचकर हम जो इस मां-घाटी में सकुशल बैठे हैं, हमें उसी पर संतोष करना चाहिए।’’

माली के मुख पर वेदना के चिह्न दिखाई पड़े, ‘‘यह क्या मैं उसी सुमाली का स्वर सुन रहा हूं, जिसके नाम का आतंक आज भी देवों के हृदय की धड़कन बढ़ा देता है, तुम्हें अपनी शक्ति को इस तरह छोटा नहीं बनाना चाहिए, वत्स ! जानते हो तो, यदि उस दिन विष्णु देवों के सहायक न होते, तुम्हारा महान् वीरत्व उन्हें पराजित कर ही चुका था।’’
‘‘किंतु विष्णु तो देवों के सदा ही सहायक हैं। तब देवों को पराजित करके भी हम उन्हें कैसे पराजित कर सकते हैं ?’’
‘‘गुरुदेव कहते हैं, आगामी देवासुर संग्राम में देवों को विष्णु की सहायता नहीं प्राप्त हो सकेगी।’’
सुमाली की आंखों में कौतुक और अविश्वास झलक आया।
‘‘अविश्वास मत करो, वत्स ! गुरुदेव की योजनाओं में ऐसी ही सामर्थ्य है। उनकी बुद्धि और नीति दोनों ही अपराजेय हैं।’’
‘‘तब ऐसी सामर्थ्यवान योजना को कार्यान्वित करने में विलंब क्यों ?’’ सुमाली ने व्यंग्य से पूछा।
‘‘गुरुदेव कहते हैं कि लंका युद्ध में न्यून से न्यून ग्यारह सौ दिन पश्चात् ही इस योजना को- जिसे वे विष्णु योजना कहते हैं- कार्यान्वित किया जा सकता है। इससे पूर्व नहीं।’’

‘‘ऐसा क्यों ?’’ सुमाली ने उपहासपूर्ण स्वर में पूछा।
‘‘इसलिए कि देवों को हम लोगों की तरफ से असावधान करने और हमारे जीवित न रहने संबंधी उनके विश्वास को पुष्ट करने के लिए इतने दिन की प्रतीक्षा आवश्यक है।’’
‘‘तब तो निश्चय ही गुरुदेव अपनी उस अद्भुत ‘विष्णु-योजना’ को अविलंब कार्यान्वित करने जा रहे होंगे। क्योंकि प्रतीक्षा की वह अवधि तो कितने ही दिन पूर्व समाप्त हो गई। आज हमें यहां आए बारह सौ चौरासीवां दिन चल रहा है।’’
‘‘आशा तो यही है।’’

सुनकर सुमाली अपने को और अधिक न रोक सका और जिस बात को स्पष्ट कह देने के लिए वह कितने ही दिन से अधीर हो रहा था, माली को अत्यधिक चकित करते हुए वही बात कह बैठा, ‘‘आज मुझे कहने के लिए क्षमा करना होगा, भैया ! कि इतनी देर तक आप अपने गुरुदेव की जिन योजनाओं का इतना गुणगान करते रहे, मुझे उन पर तनिक भी आस्था नहीं है। वे योजनाएं बनाते तो बहुत हैं, किन्तु सभी अस्थिर और अधूरी। उनकी कोई भी योजना अंत तक नहीं पहुंच पाती।’’
हाथ में पकड़े हुए किशुंक-पुष्प को रोष से धरती पर पटककर माली स्तब्ध भाव से कह उठा, ‘‘यह सब क्या कह रहे हो तुम ? कई इन जंगली पंक्षियों ने तुम्हारे मस्तिष्क का संतुलन तो नहीं बिगाड़ दिया !’’
‘‘अपने मस्तिष्क का संतुलन मत खोओ, भैया ! मैं जो कुछ कह रहा हूं ठीक ही कह रही हूं। राजकुमारी कैकसी की योजना को तो आप जानते ही हैं। आज से लगभग साल-भर पहले उन्होंने बिना मेरा मत लिए, बिना सूचना दिए, स्वयं अपनी इच्छा से ही उत्तरावती के राजकुमार अनिलसेन के साथ कैकसी के विवाह की योजना बना डाली थी और उसे सफल बनाने के लिए विमान-चालक प्रहस्त द्वारा कैकसी का एक तूलिका चित्र भी उसके पास भिजवा दिया था। बाद में उसे बहुत ही प्रच्छन्न रूप से यहां बुलवाकर कैकसी के साथ उसकी भेंट भी करा दी थी।

‘‘परिणाम उनके अनुकूल ही निकला था। प्रथम भेंट में ही वह कैकसी पर ऐसा अनुरक्त हो गया कि फिर अमरावती न लौट सका। उसी का होकर रह गया। बाद में कैकसी का भी उससे प्रणय हो गया और कुछ दिन बाद तो हालात यहां तक आ पहुंचे कि दोनों में से किसी के लिए भी एक-दूसरे के बिना क्षण-भर बिताना कठिन हो गया।
‘‘उन्हें ऐसे तीव्र प्रणय में आबद्ध देख मैंने जब गुरुदेव के सामने उन दोनों के विवाह का सुझाव रखा, जानते हैं उन्होंने क्या कहा ?’’
‘‘नहीं तो !’’ माली ने कुछ विस्मय में पड़कर कहा।
‘‘कहा, दोनों में प्रणय-बंधन के रहते विवाह-बंधन की क्या आवश्यकता है। अभी तो जैसा है वैसा ही रहने दो। और इस प्रकार उनकी अपनी ही बनाई योजना पूरे एक वर्ष से अधूरी चली आ रही है। उनका इस तरह का व्यवहार क्या संदेहजनक नहीं है ?’’
‘‘संदेहजनक कुछ भी नहीं है। वैसा कहने में उनका केवल यही अभिप्राय रहा होगा कि अब उत्तरवासियों की विवाह-पद्धति और असुरों की प्रणय-पद्धति दोनों में ही दांपत्य जीवन के संपूर्ण अधिकार प्राप्त हैं, तो हमें व्यर्थ ही दूसरों की पद्धति को ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ?’’

‘‘मैं यह नहीं मानता ! प्रणय-पद्धति में नारी के लिए एक ही पुरुष के साथ समग्र जीवन बिताने का कोई आग्रह नहीं है। इच्छा करने पर वह उससे संबंध-विच्छेद करके दूसरे की अंकशायिनी बनने के लिए स्वतंत्र है। मैं ऐसी निरंकुश पद्धति की तुलना में विवाह-पद्धति को ही श्रेष्ठ मानता हूं। लेकिन जाने दो। यदि अनिल-कैकसी का विवाह न कराने में गुरुदेव का कोई कूट अभिप्राय न रहा होता, मैं उनके इस प्रणय-संबंध को भी कदाचित् स्वीकार कर लेता। कोई आपत्ति न करता। किंतु...’’
क्षण-भर मौन रहकर उसने आगे कहना आरंभ किया, ‘‘किंतु मैंने जब तुम्हारे इस गुरुदेव को मेरे बार-बार के अनुरोध का निरंतर विरोध करते ही पाया, मुझे संदेह होने लगा कि कहीं अनिलसेन को कैकसी के प्रति आकृष्ट कराकर उसे यहीं रोक रखने में उनका कोई कूट अभिप्राय तो नहीं है ? यह उतना बड़ा प्रयास क्या उन्होंने केवल अनिलसेन और कैकसी की हित दृष्टि से ही किया है ?

‘‘नहीं ! मुझे लगता है, ऐसा करने में अवश्य ही उनका उद्देश्य अपनी किसी कूटनीति को पूर्ण करना ही है।’’
माली ठठाकर हंस पड़, ‘‘भई, खूब दूर की कौड़ी खोजकर लाए हो। यदि लंका के प्रधान सेनापति न होकर तुम किसी आख्यायिका के महान लेखक रहे होते, अवश्य ही ठीक रहा होता। खूब कल्पना की है।’’
फिर कुछ क्षण ठहरकर गंभीर भाव से बोला, ‘‘तुम सरीखे धैर्यशाली पुरुष को इतनी उत्तेजना शोभा नहीं देती। कैकसी अपनी ही तो लड़की है। गुरुदेव कभी स्वप्न में भी उसका अहित करेंगे, सोचा जा सकता है क्या ? यद्यपि आज उनके निर्णयों का रहस्य हम समझ नहीं पा रहे, तो भी उनमें हमारे कल्याण के ही रहस्य छिपे हैं, यह तो निश्चित ही है।’’
‘‘निश्चित हो या अनिश्चित, किंतु इतना निश्चित है कि मैं अपनी एकमात्र संतान को उनकी कूटनीति का लक्ष्य न बनने दूंगा।’’ कहकर वह उत्तेजित भाव से चला गया।


दो



कंदराओं के पास बहने वाली जलधारा के उस पार एक छोटी-सी वृक्ष-वाटिका दिखाई पड़ती है, जिसमें इस मां-घाटी में पाए जाने वाले सभी वृक्षों का एक-एक नमूना संग्रहीत किया गया है। किंतु यदि वाटिका के कुछ और निकट जाया जाए, तो पता चलेगा कि उन वृक्षों के नमूनों के अतिरिक्त उस घाटी में पाई जाने वाली पहाड़ियों, कंदराओं, जलाशयों और वनस्थलियों आदि की छोटी-छोटी अनुकृतियां भी उसमें यथास्थान बनी हैं, जो यह बताती हैं कि यह केवल वृक्ष-वाटिका न होकर वास्तव में उस संपूर्ण मां-घाटी का लघु मानचित्र है, जिसे अनिलसेन ने कैकसी के अनुरोध पर बड़े यत्न से तैयार कर मां-घटी को ही समर्पित कर दिया है। मानचित्र बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। वृक्षों के छोटे-छोटे पौधों और अनुकृतियों द्वारा उसमें घाटी का इतना यथार्थ चित्रण हुआ है कि वह उसका अविकल प्रतिबिंब प्रतीत होता है।
उस मानचित्र में उन युगल-प्रेमियों की कितनी ही मधुर स्मृतियां भरी पड़ी हैं। घाटी के जिन पर्वतों पर उन्होंने स्वेच्छा विहार किए, सुंदर शिलातलों पर संध्याएं बिताईं, छाया-भरी वनस्थलियों में दिवास्वाप किए, जिन ध्वांत कंदराओं में स्नेहलाप किए, जिन वृक्षों के मधुर फल खाए और जिन जलाशयों में एकांत स्नान किए, उन सभी आनंद-भरे क्षणों की सुखद स्मृतियां इसमें संजोकर रख दी गई हैं।

एक ही वर्ष में वे घाटी के प्रत्येक रहस्य से परिचित हो गए थे। वहां का प्रत्येक गुप्त स्थान, प्रत्येक वृक्ष, प्रत्येक कंदरा उनकी परिचित हो गई थी। घाटी सैकड़ों झरबेरियों से भरी थी, जो शरद् ऋतु में लाल-पीले बेरों से लद उठती थीं। उनमें कौन-सी मीठी है, कौन-सी कसैली, उन्हें पता था। रातों में हरिणों के यूथ कहां विश्राम करते हैं, चीलों के झुंड किन वृक्षों पर सोते हैं, रात्रि-बेलाओं में आखेट खेलकर सिंह किन ठंडे स्थानों में सोनो के लिए चले जाते हैं, सभी बातों से वे सुपरिचित थे।

वह दिन उन्हें आज भी याद है जब प्रथम बार उन्हें एक लंबे दांतों वाले इक्कड़ हाथी के दर्शन हुए थे, जो एक बेल-वृक्ष के नीचे खड़ा था। हाथी इतना भयंकर था कि उसे देखकर कैकसी अनिलसेन की बाहों में आ छिपी थी। किन्तु यह देखकर विस्मय हुआ कि उसने उन्हें कुछ नहीं कहा और चुपचाप एक तरफ निकल गया।
केवल वहीं क्यों, वहां के सिंह, बाघ, अरण्यमहिष, जंगली सांड और भालू आदि ने भी उन पर कभी झपटने की चेष्टा नहीं की। यह तो उन्हें बाद में पता चला कि यह सब मां-घाटी के आदेश से हो रहा था। घाटी का प्रत्येक प्राणी उन्हें अपना अतिथि मानता था। कुछ दिन बाद उन्हें वन-देवताओं से उपहार भी मिलने लगे। कभी मधु, कभी कदली-फल, कभी खजूरें, कभी नारियल और कभी मधुर करौंदों की भेंट अनिलसेन की कुटिया पर, जो मानचित्र के साथ ही बनी थी, पहुंचने लगी। वनधेनुएं स्वयं ही प्रातः सायं पहुंचकर पुष्कल दूध दे जाने लगीं। वह इक्कड़ हाथी भी, जो उनका परम मित्र बन गया था, उन्हें पीठ पर बैठाकर समूची घाटी का परिभ्रमण करा लाता।

इसी तरह दिन बीत रहे थे। एक दिन जब पूर्णिमा की चांदनी में वे दोनों एक प्रच्छन्न स्फटिक-शिला पर बैठे हुए थे, अनिलसेन ने कैकसी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए अचानक ही कहा, ‘‘तुम्हारा विमान-चालक प्रहस्त कल रात ही उत्तरावती की गुप्त यात्रा से लौटा है और एक अद्भुत समाचार लाया है।’’
‘‘उत्तरावती से ! वह क्या उधर भी जाता है ?’’ कैकसी ने चौंककर पूछा।
‘‘हाँ ! बहुत बार ! किन्तु समाचार शुभ नहीं है।’’

‘‘न सही शुभ ! सुनाओ !’’ कहते हुए उसका दिल धड़क रहा था।
लंका-विजय के उपरांत देवों के अहंकार की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई है कि उन्होंने सभी असुर राज्यों पर हाथ फैलाना आरंभ कर दिया है। अमरावती के मंत्रालय से अभी हाल में पद्मद्वीप के सभी असुर नरेशों के नाम एक अध्यादेश जारी किया गया है, जिसके अनुसार उनके युवराजों को वर्ष में न्यून से न्यून नौ मास अमरावती में ही रहना पड़ेगा। देवों के भय से सभी नरेशों को यह अध्यादेश स्वीकार करना पड़ा है और उनके युवराज अमरावती पहुंच भी गए हैं। केवल उत्तरावती का युवराज ही नहीं पहुंचा है।’’
किसी अज्ञात अनिष्ट की आशंका से कैकसी का मुख विवर्ण हो उठा, ‘‘अब क्या होगा ?’’ उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ा।
‘‘कुछ भी हो। किंतु इतना निश्चित है, केवल कैकसी का आदेश की उत्तरावती के युवराज को अमरावती पहुंचा सकता है। दूसरा कोई नहीं।’’
‘‘किंतु अमरावती के अध्यादेश को अमान्य करने का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है, यह भी तो एक बार सोच लेना होगा।’’

‘‘सोच लिया है। इस घाटी की महासुंदरी को छोड़कर अनिलसेन के लिए कहीं भी जाना संभव न हो सकेगा।’’
क्षण-भर के लिए कैकसी का मुख लाज से आरक्त हो उठा। परंतु अगले ही क्षण अपने को संयत कर कह उठी ‘‘संभव न हो सकेगा तो होने की आवश्यकता भी नहीं है।’’ कहकर वह कुछ क्षणों तक मौन बैठी रही। फिर जैसे अकस्मात् ही कोई बात उसे स्मरण हो आई हो, एक ही साथ कह उठी, ‘‘तुम्हारा एक छोटा भाई भी तो है। उसकी क्या आयु होगी ?’’
‘‘यही कोई इक्कीस वर्ष !...क्यों ?’’
‘‘तुम्हारी अनुपस्थिति में यदि वह अमरावती चला जाए, तो देवराज इंद्र को उसमें क्या आपत्ति हो सकती है ?’’
‘‘होनी तो नहीं चाहिए।’’
‘‘नहीं, होनी चाहिए की नहीं। होगी ही नहीं। उन लोगों को तो उत्तरावती का एक राजकुमार चाहिए। बंधक के तौर पर। तुम हो ओ या वह !’’
‘‘हो सकता है, तुम्हारी बात ठीक हो।’’
किंतु आज की रात शायद चिंता के लिए ही बनी थी। एक हटती, दूसरी आ खड़ी होती। पूर्णिमा की शीतल ज्योत्स्ना भी उसे शांत करने में समर्थ न हो रही थी। पिघली चांदी-सी जलधारा भी उसे शीतल न कर पा रही थी। अनेक विध चिंताओं का बोझ उसके मन पर भार बनकर बैठा जा रहा था।

‘‘क्या सोच रही हो ?’’ अनिल सेन ने एक बार फिर उसका कोमल हाथ अपने हाथ में लेते हुए स्नेह से पूछा।
‘‘सोच रही हूं, इस प्रहस्त के बारे में। तुम्हीं बता रहे थे कि वह उत्तरावती की कितनी ही यात्राएं कर चुका है। किंतु एक विमान-चालक का इतनी गुप्त यात्राओं से क्या संबंध हो सकता है ?’’
‘‘इतनी गुप्त यात्राओं का क्या रहस्य है और प्रहस्त का इनसे क्या संबंध है, यह तो नहीं जानता। किंतु कल रात मैं इतना अवश्य जान गया हूँ कि जिसे तुम्हारे सरल प्रकृति पिता, ज्येष्ठ तात और माताएं एक सामान्य विमान-चालक समझ रही हैं, वह यथार्थ में तुम लोगों के कूटनीतिज्ञ शुक्राचार्य का परम विश्वसनीय प्रणिधि है।’’
अवाक् होकर कैकसी अनिलसेन की तरफ देखने लगी।

अनिलसेन कहता जा रहा था, ‘‘मुझे लगता है, तुम्हारे ये परम धूर्त महामंत्री इस प्रहस्त को अपना दायां हाथ बनाकर किसी ऐसी कुटिल योजना का प्रवर्तन कर रहे हैं, जिसका परिणाम महासंहार के अतिरिक्त कुछ न होगा। हमारे संपूर्ण सुख, संपूर्ण निश्चिंतताएं, एक साथ समाप्त हो जाएंगी। सुनोगी, कल रात क्या हुआ ?’’
‘‘सुनाओ !’’ कैकसी अधीरता से कह उठी।
‘‘तब शायद आधी रात जा चुकी थी,’’ अनिलसेन ने कहना प्रारंभ किया, ‘‘अपनी कुटिया के बरामदे में बैठा मैं तब भी जाग रहा था कि देखा, सामने के मैदान में धीमे से, निःशब्द एक विमान उतरा और उसमें से निकल एक दीर्घकाय व्यक्ति बाहर आ खड़ा हुआ। विमान तो चांदनी रात में पहचान में आ गया। तुम्हारा ही था। किंतु वह व्यक्ति पहचान में न आया। लंबी दाढ़ी, लंबे केश, पैरों पर लटकती रेशमी कंछा, हाथ में कमंडल। बहुत ही रहस्यमय दिखाई पड़ रहे था वह ! देखकर असीम विस्मय हुआ।

‘‘किंतु जब विमान को वहीं खड़ा छोड़ वह सेतु की तरफ चल पड़ा, संदेह हो आया। कहीं कोई देवों का गुप्तचर तो नहीं ? कृपाण संभाल उसके पीछे चल पड़ा। बहुत ही दबे पांव चल रहा था वह ! सेतु लांघते समय उसके पैरों की तनिक-सी भी आहट नहीं हुई। किंतु वह कंदराओं की तरफ नहीं गया। उन्हें बाएं हाथ छोड़ता हुआ, उस घने पीपल के नीचे जा पहुंचा, जिसकी छाया में बिछी चौड़ी शिला पर तुम्हारे गुरुदेव प्रायः ही बैठा करते हैं।
‘‘अभी वह पहुंचा ही था कि पीपल की श्यामल छाया में से निकल किसी व्यक्ति ने उससे हाथ मिलाया और अपने पास शिला पर बिठाकर बहुत ही मंद स्वर में उससे बात करने लगा। ये तुम्हारे गुरुदेव थे। किंतु आगंतुक अब तक भी पहचान में न आया। यह जानने के लिए कि यह रहस्यमय व्यक्ति कौन है, मैं पास की ही एक झाड़ी में छिपकर उनकी बातें सुनने लगा।

‘‘बहुत ही धूर्त जान पड़ता था आगंतुक। उसने कुछ बाते सीधी सरल असुर भाषा में कीं, कुछ किसी सांकेतिक भाषा में। असुर भाषा की बातें तो प्रायः वे ही थीं जो मैंने हाल में तुम्हें बताई हैं। किंतु सांकेतिक भाषा में कही गई बातें शायद बहुत गोपनीय थीं, जो जरा भी समझ में नहीं आईं। केवल दो ही शब्द समझ में आए- नारायणास्त्र और ब्रह्मशिरास्त्र ! किंतु उनसे उसका क्या अभिप्राय था, समझ में नहीं आया।
‘‘बातें समाप्त होने के उपरांत तुम्हारे गुरुदेव जब उसका दिया हुआ एक गुप्त पत्र, जो संभवतः भोजपत्र पर लिखा था, अपनी कक्ष-गुटिका में रखते हुए चले गए, आगंतुक ने अचानक ही अपनी कृत्रिम दाढ़ी और केश उतारकर एक तरफ रख दिए। देखा, प्रहस्त के अतिरिक्त वह और कोई नहीं है।’’
कैकयी ध्यान से सुन रही थी। बात समाप्त हो जाने पर वह एकाएक कुछ न कह सकी। विस्मय से अनिलसेन की तरफ केवल निहारती रही। कुछ क्षण बाद एक लंबी सांस उसके मुख से अनायास निकल गई। बोली, ‘‘इतना सब हो गया और हम लोगों को कुछ पता ही न चला।’’

‘‘पता चल जाता तो फिर उसे गुप्तचर कौन कहता ?’’
‘‘किंतु यह सब क्या हो रहा है, कुछ भी तो समझ नहीं पड़ रहा। तो भी, मेरे कानों में कोई बार-बार कह रहा है कि तीन वर्ष तक यहां जो शांति छाई थी, वह अब अविलंब ही नष्ट होने जा रही है। जैसे कोई भूकंप-मानव निर्मित भूकंप – इस घाटी में आ पहुंचने वाला है, जिसके आघात से यहां के सभी सुख, सभी निश्चिंतताएं, एक ही साथ समाप्त हो जाएंगी।....प्रहस्त का बार-बार उत्तरावता जाना अकारण नहीं हो सकता। मेरा जी घबरा रहा है...मेरी एक बात मानोगे ?’’
‘‘तुम्हारी प्रत्येक बात मेरे लिए आदेश है, कैकसी ! कहो।’’
‘‘यह तो तुम भी मानोगे कि इस अतिथि-वत्सला मां-घाटी ने हम पर अनेक उपकार किए हैं। न जाने क्यों, मेरा मन कह रहा है कि हमारे इसमें रहने के दिन समाप्त हो गए। अतएव जाने से पहले यदि हम इस घाटी तथा इसमें बिताए अपने आनंद भरे दिनों की कोई चिरस्थायी स्मृति छोड़ जा सकें, तो संभव है इसके उपकारों का, कुछ थोड़ा-सा ऋण चुका सकें। क्या कहते हो ?’’

‘‘न-न, इतनी निराश न होओ, प्रिये !’’ हम चिरकाल तक, इसी अभग्न प्रणय-बंधन में बंधकर, अपनी इस प्रिय घाटी में इसी तरह रहते रहेंगे। इसी तरह इसमें विहार करते रहेंगे। इसी तरह उसके उपहारों का उपयोग करते रहेंगे। इस प्रहस्त या तुम्हारे इन गुरुदेव के हाथों हमारा कोई अमंगल न हो सकेगा। वनदेवता हमारे रक्षक हैं।’’
किंतु कैकसी को सांत्वना नहीं मिली। उसके मन में एक बार जो संदेह उठ आया फिर न मिट सका। तब अनिलसेन ने उसे अपने आलिंगनपाश में बांधकर सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘इस अनुचर के रहते तुम्हें चिंतित होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, प्रिये !  तुम जिस चिरस्थायी-स्मृति की बात कर रही हो, वह कुछ ही दिन में बनकर तैयार हो जाएगी।’’
इस प्रकार मां-घाटी का यह सुंदर मानचित्र तीन ही मास में बनकर तैयार हो गया।


तीन



मां-घाटी का उपहार लेकर आज भी कुछ बनवासी प्राणी वृक्ष-वाटिका के मैदान में आए हुए हैं। अनिलसेन की कुटी के सामने उसका मित्र हाथी खड़ा है, जिसकी पीठ पर लदे हुए उपहारों को वानरों का यूथ कूद-कूदकर उतार रहा है। एक तरफ सात-आठ वनधेनुएं भी खड़ी हैं, जिन्हें कैकसी और अनिलसेन दुह कर रहे हैं। प्रतिदिन ही यह सब होता है।  
प्रतिदिन ही मां का उपहार लेकर वन्य-पशु आते हैं और प्रतिदिन ही कैकसी और अनिलसेन को उन उपहारों की सार-संभाल करनी पड़ती है।

संभाल कितनी ही करनी पड़े, किंतु मां-घाटी के उस मानचित्र एवं यत्न से तैयार की गई उस वृक्ष-वाटिका को वे एक क्षण के लिए भी नहीं भूल सके हैं। उन उपहारों की दैनिक व्यवस्था कर देने के बाद उनका प्रायः शेष सभी समय उसकी देख-रेख में ही बीतता है। संसार में इससे अधिक प्रिय उन्हें शायद ही कोई स्थान रहा हो।
 
           
 

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