कहानी संग्रह >> प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँप्रेमचंद
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प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियाँ परिवेश को बुनती हैं। पात्र चुनती है। उसके संवाद उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि से घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया।
उनकी कहानियाँ परिवेश को बुनती हैं। पात्र चुनती है। उसके संवाद उसी
भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि से घटना घट रही है। इसलिए पाठक
कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। इसलिए प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार
हैं। लेकिन वे घटना को ज्यों-का-त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह
है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-यमुनी संगम है।
कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यताः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया है। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।
प्रेमचंद की प्रत्येक कहानी मानव मन के अनेक दृश्यों चेतना के अनेक छोरों सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक उत्पीड़न के विविध आयामों को अपनी संपूर्ण कलात्मकता के साथ अनावृत करती है। कफन, नमक का दारोगा, शतरंज के खिलाड़ी, वासना की कड़ियाँ, दुनिया का सबसे अनमोल रतन आदि सैकड़ों रचनाएँ ऐसी हैं, जो विचार और अनुभूति दोनों स्तरों पर पाठकों को आज भी आंदोलित करती हैं। वे एक कालजयी रचनाकार की मानवीय गरिमा के पक्ष में दी गई उद्घोषणाएँ हैं। समाज के दलित वर्गों, आर्थिक और सामाजिक यंत्रणा के शिकार मनुष्यों के अधिकारों के लिए जूझती मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ हमारे साहित्य की सबलतम निधि हैं।
कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यताः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया है। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।
प्रेमचंद की प्रत्येक कहानी मानव मन के अनेक दृश्यों चेतना के अनेक छोरों सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक उत्पीड़न के विविध आयामों को अपनी संपूर्ण कलात्मकता के साथ अनावृत करती है। कफन, नमक का दारोगा, शतरंज के खिलाड़ी, वासना की कड़ियाँ, दुनिया का सबसे अनमोल रतन आदि सैकड़ों रचनाएँ ऐसी हैं, जो विचार और अनुभूति दोनों स्तरों पर पाठकों को आज भी आंदोलित करती हैं। वे एक कालजयी रचनाकार की मानवीय गरिमा के पक्ष में दी गई उद्घोषणाएँ हैं। समाज के दलित वर्गों, आर्थिक और सामाजिक यंत्रणा के शिकार मनुष्यों के अधिकारों के लिए जूझती मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ हमारे साहित्य की सबलतम निधि हैं।
प्रेमचंद्र की कहानियों का रचना संसार
कहानी, साहित्य की सबलतम विधा है। वह एक ऐसा दर्पण है, जिसमें व्यक्ति और
समाज के परस्पर संबंधों, क्रियाविधियों उसके सुख-दुःख के क्षणों की सजीव,
हृदयग्राही तथा मार्मिक तस्वीरें देखी जा सकती हैं। इसके उन्नयन और विकास
में विश्व के अनेक कथाकारों ने जो योगदान किया, वह भाषा-शैली, रूप-विधान,
कला-सौष्ठव तथा तकनीक की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह हिंदी
कहानी की उपलब्धि है कि इसे अपने विकास के आदिकाल में मुंशी प्रेमचंद जैसे
मानव मन के कुशल चितेरे मिले, जिनके कहानी साहित्य ने हिंदी उर्दू में एक
नए युग का सूत्रपात किया।
प्रेमचंद की कहानियों का फलक व्यापक है। हिंदी के प्रख्यात समीक्षक डॉ.गौतम सचदेव ने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए कहा-विचार तत्व उनकी कहानियों का निर्देशक है। लाहौर के मासिक पत्र ‘नौरंगे खयाल’ के संपादक के यह पूछने पर कि आप कैसे लिखते हैं? प्रेमचंद जी ने उत्तर दिया, मेरी कहानियां प्रायः किसी न किसी प्रेरणा या अनुभव पर आधारित होती हैं। इसमें मैं ड्रामाई रंग पैदा करने की कोशिश करता हूँ।
केवल घटना वर्णन के लिए या मनोरंजन घटना को लेकर मैं कहानियां नहीं लिखता। मैं कहानी में किसी दार्शनिक या भावनात्मक लक्ष्य को दिखाना चाहता हूं। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम नहीं उठती। प्रेमचंद का उक्त वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है।
शैल्पिक विशेषताओं की दृष्टि से भी प्रेमचंद की कहानियां अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। अपने समकालीन कथा साहित्य और परवर्ती पीढ़ी को उनकी कहानियों ने यथेष्ट रूप से प्रभावित किया है।
हमारी इच्छा थी कि प्रेमचंद के अमर कहानी साहित्य को नयनाभिराम ढंग से डायमंड के पाठकों के समक्ष कम मूल्य में प्रस्तुत किया जाए। प्रस्तुत संकलन इसी दिशा में एक प्रयास है।
प्रेमचंद की कहानियों का फलक व्यापक है। हिंदी के प्रख्यात समीक्षक डॉ.गौतम सचदेव ने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए कहा-विचार तत्व उनकी कहानियों का निर्देशक है। लाहौर के मासिक पत्र ‘नौरंगे खयाल’ के संपादक के यह पूछने पर कि आप कैसे लिखते हैं? प्रेमचंद जी ने उत्तर दिया, मेरी कहानियां प्रायः किसी न किसी प्रेरणा या अनुभव पर आधारित होती हैं। इसमें मैं ड्रामाई रंग पैदा करने की कोशिश करता हूँ।
केवल घटना वर्णन के लिए या मनोरंजन घटना को लेकर मैं कहानियां नहीं लिखता। मैं कहानी में किसी दार्शनिक या भावनात्मक लक्ष्य को दिखाना चाहता हूं। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम नहीं उठती। प्रेमचंद का उक्त वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है।
शैल्पिक विशेषताओं की दृष्टि से भी प्रेमचंद की कहानियां अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। अपने समकालीन कथा साहित्य और परवर्ती पीढ़ी को उनकी कहानियों ने यथेष्ट रूप से प्रभावित किया है।
हमारी इच्छा थी कि प्रेमचंद के अमर कहानी साहित्य को नयनाभिराम ढंग से डायमंड के पाठकों के समक्ष कम मूल्य में प्रस्तुत किया जाए। प्रस्तुत संकलन इसी दिशा में एक प्रयास है।
नरेंद्र कुमार
ईदगाह
रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई है। कितना मनोहर, कितना सुहावना
प्रभात है। वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है,
आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल
है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह
जाने की तैयारियाँ हो रही हैं।
किसी के कुरते में बटन नहीं हैं, पड़ोस के घर से सुई तागा लाने को दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना भेंटना। दोपहर के पहले लौटना असंभव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं; लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन। सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं ! उन्हें क्या खबर कि चौधरी आज आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए।
उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़जाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एस दो दस बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो तीन आठ नौ पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीज़ें लाएँगे—खिलौने, मिठाइयाँ बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या !
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है। हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब-सरत दुबला पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला, क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी, वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मीजान अल्लाहमियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा ! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हैं। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा महमूद मोहसिन नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती ? इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को ? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबद लेकर आए, हामिद की आनंद भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले जाऊँगा। बिलकुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है ? उसे कैसे अकेले मेले जाने दे! उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो !
नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं-सी जान, तीन कोस चलेगा कैसे ? पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद ले लेगी, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकाएगा ? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीज़ें जमा करते लगेंगे। माँग ही का तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिए थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी, इसी ईद के लिए। लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती। हामिद के लिए कुछ नहीं है तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं।
तीन पैसे हामिद की जेब में पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार ! अल्लाह ही बेड़ा पार लगाएगा। धोबन और नाइन और मेहतरानी और चूड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सेवैया चाहिए और थोड़ा किसी की आँखों नहीं लगता। किस-किस से मुँह चुराएगी। और मुँह क्यों चुराए ? साल भर का त्यौहार है। जिंदगी खैरियत से रहे उनकी तकदीर भी जो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएँगे।
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं ? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है ? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लबघर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे। सब लड़के नहीं हैं जी। बड़े-बड़े आदमी हैं, सच, उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं, इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर ? हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लबघर में जादू होता है।
सुना है, यहाँ मुरदे की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं और बड़े-बड़े तमाशे होते है, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और यहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछों-दाढ़ी वाले और मेमें भी खेलती हैं, सच। हमारी अम्मा को वह दे दो, क्या नाम है, बैट तो उसे पकड़ ही नहीं सकें। घूमते ही लुढ़क न जाएँ।
महमूद ने कहा हमारी अम्मीजान का तो हाथ कापँने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोला-चलो मनों आटा पीस डालती हैं। जरा सा बैट पकड़ लेंगी तो हाथ काँपने लगेंगे। सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो मेरी भैंस पी जाती हैं। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े तो आँखों तले अँधेरा आ जाए।
महमूद—लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन—हाँ, उछल-कूद नहीं सकतीं, लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, तो अम्मा इतनी तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें पा न सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता हैं ? देखो न एक-एक दुकान पर मनों होंगी। सुना है रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रुपए देता है, बिलकुल ऐसे ही रुपए।
हामिद को यकीन न आया-ऐसे रुपए जिन्नात को कहाँ से मिल जाएँगे ?
मोहसिन ने कहा जिन्नात को रुपए की क्या कमी ? जिस खजाने में चाहें चले जाएँ। लोहे के दरवाजे इन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में। हीरे जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाएँ।
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बडे़-बड़े होते होंगे।
मोहसिन—एक-एक आसमान के बराबर होता है जी। जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए।
हामिद—लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे ? कोई मुझे वह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।
मोहसिन—अब यह तो मैं नहीं जानता लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत जिन्नात हैं। कोई चीज़ चोरी चली जाए। चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम भी बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए। कहीं न मिला। तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरंत बता दिया कि मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की ख़बर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है, और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चलें। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन ! फाम फो ! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ।
मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं ? तभी तुम बहुत जानते हो। अजी हजरत, यही चोरी कराते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिलते हैं। रात कोये लोग चोरों से कहते हैं कि चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर जागते रहो ! जागते रहो ! पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने पैसे आते हैं। मेरे मांमू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रुपए महीना पाते हैं, लेकिन पचास रुपए घर भेजते हैं। अल्ला कसम ! मैंने एक बार पूछा था कि
मामूं आप इतने रुपए कहाँ से पाते हैं ? हँसकर कहने लगे बेटा अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।
हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई उन्हें पकड़ता नहीं ?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला, अरे पागल, इन्हें कौन पकड़ेगा ? पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं। लेकिन अल्लाह इन्हें सज़ा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए मामूं के घर आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे। फिर न जाने कहाँ से एक सौ रुपए कर्ज लाए तो बरतन भाँड़े आए।
हामिद—एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं।
‘कहाँ पचास कहाँ एक सौ। पचास एक थैली भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आएँ।’
अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाद जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए, कोई इक्के ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का वह छोटा-सा दल अपना विपन्नता से बेखर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें, अनोखी थीं। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते। और पीछे से बार-बार हॉर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुंदर संचालन है,
कितनी सुंदर व्यवस्था ! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुके जाते हैं, फिर सब के सब एक साथ खड़े हो जाते हैं। एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, बिस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं। मानो भ्रातत्व का एक सत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।
नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का वह इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है। एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी घोड़े ऊँट छड़ों से लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन नूरे, और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता।
सब चर्खियों के उतरे हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं। सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह ! कितने सुंदर खिलौने हैं। अब बोलना ही चाहते हैं। अहमद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला कंधे पर बंदूक रखे हुए। मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई, ऊपर मशक रखे हुए हैं। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए हैं। कितना प्रसन्न है। शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना चाहता है।
नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वता है, उसके मुख पर। काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी सुनहरी जंजीर एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए है। मालूम होता है, अभी किसी अदालत में जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं। ये सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले ? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े, तो चूर-चूर हो जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के ?
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज़ पानी दे जाएगा, साँझ-सवेरे।
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा। कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
नूरे और मेरा वकील खूब मुकद्दमा लड़ेगा।
सम्मी—और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।
हामिद खिलौनों की निंदा करता है-मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। लेकिन ललचाई हुई आंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विशेषकर जब अभी नया शौक़ हो। हामिद ललचाता रह जाता है।
खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवडियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा मज़े से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता ? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है।
मोहसिन कहता है—हामिद, रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार हैं।
हामिद को संदेह हुआ, यह केवल क्रूर विनोद है। मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवडी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजा कर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद अल्ला कसम ले जा।
हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है।
सम्मी—तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे ?
अहमद—हमसे गुलाब जामुन ले जा हामिद। मोहसिन बदमाश है।
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नियामत है ! किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
मोहसिन—लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते ?
महमूद—हम समझते हैं इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएँगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वह सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं।
तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होगी ! फिर उनकी ऊँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएँगी। खिलौने से क्या फ़ायदा व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है, फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूटकर बराबरा हो जाएँगे। चिमटा कितने काम की चीज हैं।
रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो, कोई आग माँगने आए तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आए और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं। रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखें, सब कितने लालची हैं।
इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते हैं। मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाए मिठाइयाँ आप मुँह सड़ेगा, फोड़े फुंसियाँ निकलेंगी। आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। अब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी ? अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है।
हजारों दुआएँ देंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा ? बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं।
मेरा पास पैसे नहीं हैं। तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज़ दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज़ दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खाएँ मिठाइयाँ, मैं नहीं खेलता खिलौने किसी का मिजाज़ क्यों सहूँ ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभी-न-कभी आएँगे। अम्मा भी आएँगी। फिर इन लोगों से पूँछूँगा, कितने खिलौने लोगे ?
एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसे मेरी बला से। उसने दूकानदार से पूछा, यह चिमटा कितने का है ?
किसी के कुरते में बटन नहीं हैं, पड़ोस के घर से सुई तागा लाने को दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना भेंटना। दोपहर के पहले लौटना असंभव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं; लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन। सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं ! उन्हें क्या खबर कि चौधरी आज आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए।
उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़जाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एस दो दस बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो तीन आठ नौ पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीज़ें लाएँगे—खिलौने, मिठाइयाँ बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या !
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है। हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब-सरत दुबला पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला, क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी, वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मीजान अल्लाहमियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा ! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हैं। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा महमूद मोहसिन नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती ? इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को ? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबद लेकर आए, हामिद की आनंद भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले जाऊँगा। बिलकुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है ? उसे कैसे अकेले मेले जाने दे! उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो !
नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं-सी जान, तीन कोस चलेगा कैसे ? पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद ले लेगी, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकाएगा ? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीज़ें जमा करते लगेंगे। माँग ही का तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिए थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी, इसी ईद के लिए। लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती। हामिद के लिए कुछ नहीं है तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं।
तीन पैसे हामिद की जेब में पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार ! अल्लाह ही बेड़ा पार लगाएगा। धोबन और नाइन और मेहतरानी और चूड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सेवैया चाहिए और थोड़ा किसी की आँखों नहीं लगता। किस-किस से मुँह चुराएगी। और मुँह क्यों चुराए ? साल भर का त्यौहार है। जिंदगी खैरियत से रहे उनकी तकदीर भी जो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएँगे।
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं ? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है ? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लबघर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे। सब लड़के नहीं हैं जी। बड़े-बड़े आदमी हैं, सच, उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं, इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर ? हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लबघर में जादू होता है।
सुना है, यहाँ मुरदे की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं और बड़े-बड़े तमाशे होते है, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और यहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछों-दाढ़ी वाले और मेमें भी खेलती हैं, सच। हमारी अम्मा को वह दे दो, क्या नाम है, बैट तो उसे पकड़ ही नहीं सकें। घूमते ही लुढ़क न जाएँ।
महमूद ने कहा हमारी अम्मीजान का तो हाथ कापँने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोला-चलो मनों आटा पीस डालती हैं। जरा सा बैट पकड़ लेंगी तो हाथ काँपने लगेंगे। सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो मेरी भैंस पी जाती हैं। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े तो आँखों तले अँधेरा आ जाए।
महमूद—लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन—हाँ, उछल-कूद नहीं सकतीं, लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, तो अम्मा इतनी तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें पा न सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता हैं ? देखो न एक-एक दुकान पर मनों होंगी। सुना है रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रुपए देता है, बिलकुल ऐसे ही रुपए।
हामिद को यकीन न आया-ऐसे रुपए जिन्नात को कहाँ से मिल जाएँगे ?
मोहसिन ने कहा जिन्नात को रुपए की क्या कमी ? जिस खजाने में चाहें चले जाएँ। लोहे के दरवाजे इन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में। हीरे जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाएँ।
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बडे़-बड़े होते होंगे।
मोहसिन—एक-एक आसमान के बराबर होता है जी। जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए।
हामिद—लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे ? कोई मुझे वह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।
मोहसिन—अब यह तो मैं नहीं जानता लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत जिन्नात हैं। कोई चीज़ चोरी चली जाए। चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम भी बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए। कहीं न मिला। तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरंत बता दिया कि मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की ख़बर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है, और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चलें। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन ! फाम फो ! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ।
मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं ? तभी तुम बहुत जानते हो। अजी हजरत, यही चोरी कराते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिलते हैं। रात कोये लोग चोरों से कहते हैं कि चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर जागते रहो ! जागते रहो ! पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने पैसे आते हैं। मेरे मांमू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रुपए महीना पाते हैं, लेकिन पचास रुपए घर भेजते हैं। अल्ला कसम ! मैंने एक बार पूछा था कि
मामूं आप इतने रुपए कहाँ से पाते हैं ? हँसकर कहने लगे बेटा अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।
हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई उन्हें पकड़ता नहीं ?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला, अरे पागल, इन्हें कौन पकड़ेगा ? पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं। लेकिन अल्लाह इन्हें सज़ा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए मामूं के घर आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे। फिर न जाने कहाँ से एक सौ रुपए कर्ज लाए तो बरतन भाँड़े आए।
हामिद—एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं।
‘कहाँ पचास कहाँ एक सौ। पचास एक थैली भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आएँ।’
अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाद जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए, कोई इक्के ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का वह छोटा-सा दल अपना विपन्नता से बेखर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें, अनोखी थीं। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते। और पीछे से बार-बार हॉर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुंदर संचालन है,
कितनी सुंदर व्यवस्था ! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुके जाते हैं, फिर सब के सब एक साथ खड़े हो जाते हैं। एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, बिस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं। मानो भ्रातत्व का एक सत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।
नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का वह इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है। एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी घोड़े ऊँट छड़ों से लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन नूरे, और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता।
सब चर्खियों के उतरे हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं। सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह ! कितने सुंदर खिलौने हैं। अब बोलना ही चाहते हैं। अहमद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला कंधे पर बंदूक रखे हुए। मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई, ऊपर मशक रखे हुए हैं। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए हैं। कितना प्रसन्न है। शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना चाहता है।
नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वता है, उसके मुख पर। काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी सुनहरी जंजीर एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए है। मालूम होता है, अभी किसी अदालत में जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं। ये सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले ? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े, तो चूर-चूर हो जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के ?
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज़ पानी दे जाएगा, साँझ-सवेरे।
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा। कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
नूरे और मेरा वकील खूब मुकद्दमा लड़ेगा।
सम्मी—और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।
हामिद खिलौनों की निंदा करता है-मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। लेकिन ललचाई हुई आंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विशेषकर जब अभी नया शौक़ हो। हामिद ललचाता रह जाता है।
खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवडियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा मज़े से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता ? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है।
मोहसिन कहता है—हामिद, रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार हैं।
हामिद को संदेह हुआ, यह केवल क्रूर विनोद है। मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवडी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजा कर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद अल्ला कसम ले जा।
हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है।
सम्मी—तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे ?
अहमद—हमसे गुलाब जामुन ले जा हामिद। मोहसिन बदमाश है।
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नियामत है ! किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
मोहसिन—लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते ?
महमूद—हम समझते हैं इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएँगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वह सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं।
तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होगी ! फिर उनकी ऊँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएँगी। खिलौने से क्या फ़ायदा व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है, फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूटकर बराबरा हो जाएँगे। चिमटा कितने काम की चीज हैं।
रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो, कोई आग माँगने आए तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आए और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं। रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखें, सब कितने लालची हैं।
इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते हैं। मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाए मिठाइयाँ आप मुँह सड़ेगा, फोड़े फुंसियाँ निकलेंगी। आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। अब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी ? अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है।
हजारों दुआएँ देंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा ? बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं।
मेरा पास पैसे नहीं हैं। तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज़ दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज़ दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खाएँ मिठाइयाँ, मैं नहीं खेलता खिलौने किसी का मिजाज़ क्यों सहूँ ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभी-न-कभी आएँगे। अम्मा भी आएँगी। फिर इन लोगों से पूँछूँगा, कितने खिलौने लोगे ?
एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसे मेरी बला से। उसने दूकानदार से पूछा, यह चिमटा कितने का है ?
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