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मझली दीदी

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4871
आईएसबीएन :81-7182-725-x

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एक स्नेहमयी नारी की कहानी...

Manjhli Didi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक ऐसी स्नेहमयी नारी की कहानी है, जो अपनी जेठानी के अनाथ भाई को अपने बेटे के समान प्यार करने लगती है। यहां तक कि उसे अपनी जेठानी और जेठ आदि के अत्याचारों से बचाने के लिए पति को छोड़ने पर तैयार हो जाती है।
शरतचन्द्र भारतीय वांग्मय के ऐसे अप्रतिम हस्ताक्षर हैं जो कालातीत और युग संधियों से परे हैं। उन्होंने जिस महान साहित्य की रचना की है उसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाठकों को सम्मोहित और संचारित किया है। उनके अनेक उपन्यास भारत की लगभग हर भाषा में उपलब्ध हैं। उन्हें हिंदी में प्रस्तुत कर हम गौरवान्वित हैं।
प्रस्तुत उपन्यास ‘मझली दीदी’ एक ऐसी स्नेहमयी नारी की कहानी है जो अपनी जेठानी के अनाथ भाई को अपने बेटे के समान प्यार करने लगती है। यहां तक कि उसे अपनी जेठानी और जेठ आदि के अत्याचारों से बचाने के लिए पति को छोड़ने पर तैयार हो जाती है।
इस सशक्त रचना पर ‘चौखेर बाली’ के नाम से बंगाली में फिल्म भी बन रही है जिसमें मझली दीदी की भूमिका हिंदी फिल्मों की प्रसिद्ध नायिका ऐश्वर्या राय निभा रही हैं।

मंझली दीदी

परिच्छेद-1

किशन की मां चने-चुरमुरे भून-भूनकर रात-दिन चिन्ता करके बहुत ही गरीबी में उसे चौदह वर्ष का करके मर गई। किशन के लिए गांव में कहीं खड़े होने के लिए भी जगह नहीं रही। उसकी सौतेली बड़ी बहन कादम्बिनी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी इसलिए सभी लोगों ने राय दी, ‘‘किशन, तुम बड़ी बहन के घर चले जाओ। वह बड़े आदमी हैं, तुम वहां अच्छी तरह रहोगे।’’
मां के शोक में रोते-रोते किशन ने बुखार बुला लिया था। अन्त में अच्छे हो जाने पर उसने भीख मांग कर मां का श्राद्ध किया और मुंडे सिर पर एक छोटी सी पोटली रखकर अपनी बड़ी बहन के घर राजघाट पहुंच गया। बहन उसे पहचानती नहीं थी। जब उसका परिचय मिला और उसके आने का कारण मालूम हुआ तो एकदम आग बबूला हो गई। वह मजे में अपने बाल बच्चों के साथ गृहस्थी जमाए बैठी थी। अचानक यह क्या उपद्रव खड़ा हो गया ?

गांव का बूढ़ा जो उसे रास्ता दिखाने के लिए यहां तक आया था, उसे दो-चार कड़ी बातें सुनाने के बाद कादम्बिनी ने कहा, ‘‘खूब, मेरे सगे को बुला लाए, रोटियां तोड़ने के लिए।’’ और फिर सौतेली मां को सम्बोधित करके बोली, ‘‘बदजात जब तक जीती रही तब तक तो एक बार भी नहीं पूछा। अब मरने के बाद बेटे को भेजकर कुशल पूछ रही है। जाओ बाबा, पराए लड़के को यहां से ले जाओ, मुझे यह सब झंझट नहीं चाहिए।’’
बूढ़ा जाति का नाई था। किशन की मां पर उसकी श्रद्धा थी। उसे मां कहकर पुकारा करता था। इसलिए इतनी कड़ी-कड़वी बातें सुनने पर भी उसने पीछा नहीं छोड़ा, आरजू-मिन्नत करके बोला, ‘‘तुम्हारा घर लक्ष्मी का भण्डार है। न जाने कितने दास-दासी, अतिथि-भिखारी, कुत्ते-बिल्लियां तुम्हारे घर में पलते हैं। यह लड़का भी मुठठी भर भात खाकर बाहर पड़ा रहेगा, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। बहुत शांत स्वभाव का समझदार लड़का है। अगर भाई समझकर न रख सको तो ब्राह्मण का एक दुःखी और अनाथ लड़का समझकर ही घर के किसी कोने की जगह दे दो बिटिया।’’ ऐसी खुशामद से तो पुलिस के दारोगा का भी दिल पसीज जाता है, फिर कादम्बिनी तो केवल एक औरत थी इसलिए चुप रह गई। बुढ़े ने किशन को आड़ में ले जाकर दो चार बातें समझाईं और आंखें पोछता हुआ वापस लौट गया।

किशन को आश्रय मिल गया।
कादम्बिनी के पति नवीन चन्द्र मुकर्जी की धान और चावलों की आढ़त थी। जब वह दोपहर बारह बजे लौटकर घर आए, तब उन्होंने किशन को टेढ़ी नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘कौन है यह ?’’
कादम्बिनी ने भारी सा मुंह बनाकर उत्तर दिया,-‘‘तुम्हारे सगे रिश्तेदार हैं-साले हैं। इन्हें खिलाओ-पहनाओ, आदमी बनाओ। तुम्हारा परलोक सुधर जाएगा।’’
नवीन अपनी सौतेली सास की मृत्यु का समाचार सुन चुके थे। सारी बातें सुन कर तथा समझकर बोले-‘‘ठीक है खुब सुन्दर सुडौल देह है।’’
पत्नी ने कहा-‘‘शरीर सुडौल क्यों न होगा ? पिता जो कुछ धन सम्पत्ति छोड़कर गए थे कलमुंही ने सारी इसी के पेट में तो ठूस दी है। मुझे तो कानी कौड़ी भी नहीं दी।’’
शायद यहां यह बताने की जरूरत न होगी कि उसके पिता धन-सम्पत्ति के नाम पर सिर्फ एक मिट्टी की झोंपड़ी और उसके पास खड़ा एक जंबीरी नींबू का पेड़ छोड़ गए थे। उसी झोपड़ी में बेचारी विधवा किसी तरह सिर छिपाकर रहा करती थी और नींबू बेचकर लड़के के स्कूल की फीस जुटा पाती थी।
नवीन ने गुस्सा दबाकर कहा, ‘‘अच्छी बात है।’’

कादम्बिनी ने कहा, ‘‘अच्छी नहीं तो क्या बुरी बात है ? तुम्हारे बड़े रिश्तेदार ठहरे उसी तरह रखना पड़ेगा। इसके रहते मेरे पांचू, गोपाल के भाग्य में एक जून भी खाने को जुट जाए, तो यही बहुत है। नहीं तो देश भर में बदनामी जो फैल जाएगी।’’
यह कहकर कादम्बिनी ने पास वाले मकान के दूसरी मंजिल के एक कमरे की खुली हुई खिड़की की ओर अपनी क्रोध भरी आंखे उठाकर अग्नि वर्षा की। यह मकान उसकी मंझली देवरानी हेमांगिनी का था।
उधर बरामदे में एक किनारे सिर नीचा किए बैठा किशन लज्जा के मारे मरा जा रहा था।
भंडार घर में जाकर कादम्बिनी नारियल की भरेटी से थोड़ा-सा तेल निकाल लाई और किशन के पास रखकर बोली, ‘‘अब झूठ-मूठ टसुए बहाने की जरूरत नहीं जाओ, ताल में नहा आओ। तुम्हें तेल-फुलेल लगाने की आदत तो नहीं है ?’’
इसके बाद उसने जरा ऊंची आवाज में अपने पति से कहा, ‘‘तुम नहाने जाओ तो इन बाबू साहब को भी साथ लेते जाना। कहीं डूब-डाब गए तो घर भर के हाथ में रस्सी पड़ जाएगी।’’
किशन भोजन करने बैठा था। एक तो उसे भात कुछ अधिक खाने की आदत थी। उस पर कल दोपहर के बाद से उसने कुछ खाया नहीं था। आज इतनी दूर पैदल चलकर आया था और अब दिन भी ढल गया था। इन कई कारणों से थाली में परोसा सारा भात खत्म हो जाने पर भी उसकी भूख नहीं मिटी। नवीन पास ही बैठे भोजन कर रहे थे। यह देखकर उन्होंने कहा, ‘‘किशन को थोड़ा भात और दो।’

‘देती हूं’, कहकर कादम्बिनी उठी और भात से खचाखच भरी एक थाली लाकर पूरी थाली किशन की थाली में उलट दी। इसके बाद जोर से हंसती हुई बोली, यह तो खूब हुआ। रोजाना इस हाथी की खुराक जुटाने में तो हमारी सारी आढ़त खाली हो जाएगी। शाम को दूकान से दो मन मोटा चावल भेज देना नहीं तो दिवालिया होना पड़ेगा, बताए देती हूं।
मर्मबेधी लज्जा के कारण किशन का चेहरा और भी झुक गया। वह अपनी मां का एक ही लड़का था। यह तो हमें मालूम नहीं कि अपनी दुखियारी मां के यहां उसे महीन और बढ़िया चावल मिला करता था या नहीं, लेकिन इतना जरूर मालूम है कि भर पेट भात खाने के अपराध में उसे कभी लज्जा से सिर नीचा नहीं करना पड़ता था। उसे याद आया कि हजार अधिक खा लेने पर भी वह अपनी मां की खिलाने की साध कभी पूरी नहीं कर पाता था। उसे यह भी याद आया कि कुछ ही दिन पहले गड्डी और चर्खी खरीदने के लिए उसने दो करछुल भात अधिक खाकर मां से पैसे वसूल किए थे।
उसकी दोनों आंखों से आंसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें निकलकर चुपचाप उसकी थाली में गिरने लगीं और वही भात वह सिर झुकाए हुए चुपचाप खाने लगा। वह इतना भी हिम्मत नहीं कर सका कि बायां हाथ उठाकर आंसू भी पोंछ डालता। वह डरता था कि कहीं बहन देख न ले। अभी थोड़ी देर पहले ही वह झूठ-मूठ टसुए बहाने के अपराध में झिड़की खा चुका था। और उस झिड़की ने इतने दारुण मातृ शोक की गर्दन भी दबा दी थी।

परिच्छेद-2

दोनों भाइयों ने पैतृक मकान आपस में बांट लिया था।
पास वाला दो मंजिला मकान मझले भाई विपिन का है। छोटे भाई की बहुत दिन पहले मृत्यु हो गई थी। विपिन भी धान और चावल का ही व्यापार करता है। है तो उसकी स्थिति भी अच्छी लेकिन बड़े भाई नवीन जैसी नहीं है। तो भी उसका मकान दो मंजिला है। मंझली बहू हेमांगिनी शहर की लड़की है। वह दास-दासी रखकर चार आदमियों को खिला-पिलाकर ठाठ से रहना पसंद करती है। वह पैसा बचाकर गरीबों की तरह नहीं रहती। इसलिए लगभग चार साल पहले दोनों देवरानी जिठानी कलह करके अलग-अलग हो गई थीं। तब से अब तक खुलकर कई बार झगड़े हुए हैं और मिट भी गए हैं। लेकिन मनमुटाव एक दिन के लिए भी कभी नहीं मिटा। इसका कारण एकमात्र जिठानी कादम्बिनी के हाथ में था। वह खूब पक्की है और भली-भांति समझती है कि टूटी हुई हांडी में कभी जोड़ नहीं लग सकता। लेकिन मंझली बहू इतनी पक्की नहीं है। वह इस ढंग से सोच भी नहीं सकती। वह ठीक है कि झगड़े का आरम्भ मंझली बहू करती है। लेकिन फिर झगड़ा मिटाने के लिए, बातें करने के लिए और खिलाने-पिलाने के लिए वह मन-ही-मन छटपटाया भी करती है और फिर एक दिन धीरे से पास आ बैठती है। अन्त में हाथ-पैर जोड़कर रो-धोकर, क्षमा-याचना करके जिठानी को अपने घर पकड़कर ले जाती है और खूब आदर स्नेह करती। दोनों के इतने दिन इसी तरह कट गए हैं।

आज लगभग तीन-साढ़े तीन बजे हेमांगिनी इस मकान में आ पहुंची। कुएं के पास ही सीमेंट के चबूतरे पर धूप में बैठा किशन ढेर सारे कपड़ों में साबुन लगाकर उन्हें साफ कर रहा था। कादम्बिनी दूर खड़ी थोड़े साबुन से शरीर की अधिक ताकत लगाकर कपड़े धोने का कौशल सिखा रही थी। मंझली देवरानी को देखते ही बोल उठी, ‘मैया-री-मैया, यह लड़का कैसे गंदे और मैले-कुचैले कपड़े पहनकर आया है।
बात ठीक थी। किशन जैसी लाल किनारी की धोती पहनकर और दुपट्टा ओढ़कर कोई अपनी रिश्तेदारी में नहीं जाता। उन दोनों कपड़ों को साफ करने की जरूरत अवश्य थी। लेकिन धोबी के अभाव के कारण सबसे अधिक आवश्यकता थी पुत्र पांचू गोपाल के दो जोड़ी और उसके पिता के दो जोड़ी कपड़ों को साफ करने की। और किशन वही कर रहा था। हेमांगिनी देखते ही समझ गई थी कि कपड़े किसके हैं। लेकिन इस बात की कोई चर्चा न करके उसने पूछा, ‘जीजी, यह लड़का कौन है ?’
लेकिन इससे पहले ही वह अपने घर में बैठी आड़ से सारी बातें सुन चुकी थी। जिठानी को टालमटोल करते देख, उसने फिर कहा, ‘लड़का तो बहुत सुन्दर है। इसका चेहरा तो बिल्कुल तुम्हारे जैसा है जीजी ! क्या तुम्हारे मैके का ही कोई है ?’
कादम्बिनी ने बड़े विरक्त भाव से चेहरे पर गंभीरता लाकर कहा, हूं-मेरा सौतेला भाई है। अरे ओ किशना, अपनी मंझली बहन को प्रणाम तो कर। राम-राम ! कितना असभ्य है। बड़ों को प्रणाम करना होता है-क्या यह भी तेरी अभागिनी मां सिखाकर नहीं मरी ?’

किशन हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और कादम्बिनी के पैरों के पास आकर प्रणाम करना ही चाहता था कि वह बिगड़कर बोली, ‘अरे मर-क्या पागल और बहरा है ? किसे प्रणाम करने को कहा और किसे प्रणाम करने लगा।’
असल में जब से किशन यहां आया है तभी से निरन्तर होती तिरस्कार और अपमान की चोटों से उसका दिमाग ठिकाने नहीं रह गया है। उस फटकार से परेशान और हत्बुद्धि-सा होकर ज्यों ही उसने हेमांगिनी के पैरों के पास आकर सिर झुकाया त्यों ही उसने हाथ पकड़ कर उसे उठा लिया और उसकी ठोढ़ी छूकर आशीर्वाद देते हुए बोली, ‘बस, बस, बस ! रहने दो भैया, हो चुका। तुम जीते रहो।’
किशन मूर्ख की तरह उसके चेहरे की ओर देखता रहा। मानों यह बात उसके दिमाग में बैठी ही न हो कि इस देश में कोई इस तरह भी बातें कह सकता है।
उसका वह कुंठित, भयभीत और असहाय मुख देखते ही हेमांगिनी का कलेजा हिल गया। अन्दर से रुलाई-सी फूट पड़ी। वह अपने आपको संभाल नहीं सकी। जल्दी से उस अभागे अनाथ बालक को खींचकर सीने से चिपटा लिया और उसका थकान तथा पसीने से डूबा चेहरा अपने आंचल से पोंछते हुए जिठानी से बोली, ‘हाय ! हाय जीजी ! भला इससे कपड़े धुलवाए जाते हैं। किसी नौकर को क्यों नहीं बुला लिया ?’

कादम्बिनी सहसा आवाक् रह गई। उत्तर न दे सकी। लेकिन दूसरे ही पल अपने-आपको संभालकर बोली, ‘मंझली बहू, मैं तुम्हारी तरह धनवान नहीं हूं जो घर में दस-बीस नौकर-चाकर रख सकूं। हमारे गृहस्थों के घर...!’’
लेकिन उसकी बात समाप्त होने से पहले ही हेमांगिनी अपने घर की ओर मुंह करके लड़की को जोर से पुकार कर बोली, ‘उमा, शिब्बू को तो यहां भेज दे बेटी !’ जरा आकर जेठानी के और पांचू के मैले कपड़े ताल में धोकर लाए और सुखा दे।’
इसके बाद उसने जिठानी की ओर मुड़कर कहा, ‘‘आज शाम को किशन और पांचू-गोपाल दोनों ही मेरे यहां खाएंगे। पांचू के स्कूल से आते ही मेरे यहां भेज देना। तब तक मैं इसे लिए जाती हूं।’
इसके बाद उसने किशन से कहा, ‘किशन, इनकी तरह मैं भी तुम्हारी बहन हूं, आओ मेरे साथ आओ।’
कहकर वह किशन का हाथ पकड़कर अपने घर ले गई।
कादम्बिनी ने कोई बाधा नहीं डाली। उलटे उसने हेमांगिनी का दिया हुआ इतना बड़ा ताना भी चुपचाप हजम कर लिया। क्योंकि जिसने ताना दिया था उससे इस जून का खर्च भी बचा दिया था। कादम्बिनी के लिए संसार में पैसे से बढ़कर और कुछ नहीं था। इसलिए गाय दूध देते समय अगर लात मारती है तो वह उसे भी सहन कर लेती है।

परिच्छेद-3

संध्या के समय कादम्बिनी ने पूछा, ‘क्यों रे किशन, वहां क्या खा आया ?’
किशन ने बहुत लज्जित भाव से सिर झुकाकर कहा, ‘पूड़ी।’
‘काहे के साथ खाई थी ?’
किशन ने फिर उसी प्रकार कहा, ‘रोहू मछली के मूंड की तरकारी, सन्देश, रसगु...।’
‘अरे मैं पूछती हूं कि मंझली बहू ने मछली की मूंड़ किसकी थाली में परोसी थी ?’
सहसा यह प्रश्न सुनकर किशन का चेहरा लाल पीला पड़ गया। प्रहार के लिए उठे हुए हथियार को देखकर रस्सी से बंधे हुए जानवर की जो हालत होती है, किशन की भी वही हालत होने लगी। देर करते हुए देखकर कादम्बिनी ने पूछा, तेरी ही थाली में परोसा था न ?’’
बहुत बड़े अपराधी की तरह किशन ने सिर झुका दिया।
पास ही बरामदे में बैठे नवीन तम्बाकू पी रहे थे। कादम्बिनी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा, ‘सुन रहे हो न ?’
नवीन ने संक्षेप में केवल ‘हूं’ करके फिर तम्बाकू का कश खींचा।

कादम्बिनी गर्म होकर कहने लगी, ‘यह अपनी है। जरा इस सगी चाची का व्यवहार तो देखो। वह क्या नहीं जानती कि मेरे पांचू गोपाल को मछली का मूंड कितना अच्छा लगता है ? तब उसने क्या समझकर वह मूंड़ उसकी थाली में परोस कर इस तरह बेकार ही बर्बाद किया ? अरे हां रे किशन, संदेश और रसगुलले तो तूने पेट भर कर खाए न ? कभी सात जन्म में भी तूने ऐसी चीजें न देखी होंगी।’
इसके बाद फिर पति की ओर देखकर कहा, ‘जिसके लिए मुट्ठी भर भात भी गनीमत हो, उसे पूड़ी और सन्देश खिलाकर क्या होगा ? लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूं कि मंझली बहू अगर किशन को बिगाड़ न दे तो तुम मुझे कुतिया कहकर पुकारना।’
नवीन बिल्कुल चुप रहे। क्योंकि उन्हें ऐसी दुर्घटना पर विश्वास नहीं हुआ कि कादम्बिनी के रहते हुए मंझली बहू किशन को बिगाड़ सकेगी। लेकिन उनकी पत्नी को स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं था। बल्कि उसे इस बात का सोलह आने डर था कि मैं सीधी-सादी और भली मानुस हूं। मुझे जो भी चाहे ठग सकता है। इसीलिए उसने तभी से अपने छोटे भाई के मानसिक उत्थान और पतन के प्रति अपनी पैनी नजरें बिछा दीं।
दूसरे ही दिन दो नौकरों में से एक नौकर की छुट्टी कर दी गई। किशन नवीन की धान और चावल वाली आढ़त में काम करने लगा। वहां वह चावल आदि तौलता, बेचता। चार-पांच कोस का चक्कर लगाकर गांवों से नमूने ले आता और जब दोपहर को नवीन भोजन करने आते तब दूकान देखता।

दो दिन बाद की बात है। नवीन भोजन करने के बाद नींद समाप्त करके लौटकर दूकान पर गए और किशन खाना खाने घर आया। उस समय तीन बजे थे। वह तालाब में नहाकर लौटा तो उसने देखा, बहन सो रही है। उस समय उसे इतनी जोर की भूख लग रही थी कि आवश्यक होता तो शायद वह बाघ के मुंह से भी खाना निकाल लाता। लेकिन बहन के जगाने का वह साहस नहीं कर पाया।
वह रसोई घर के बाहर वाले बरामदे में एक कोने में चुपचाप बैठा बहन के जागने की प्रतीक्षा कर रहा था कि अचानक उसने पुकार सुनी, ‘किशन !’
वह आवाज उसके कानों को बड़ी भली लगी। उसने सिर उठाकर देखा-मंझली बहन अपनी दूसरी मंजिल के कमरे में खिड़की के पास खड़ी है। किशन ने एक बार देखा और फिर सिर झुका लिया। थोड़ी देर में हेमांगिनी नीचे उतर आई और उसके सामने आकर खड़ी हो गई। फिर बोली, ‘कई दिन से दिखाई नहीं दिया किशन ! यहां चुपचाप क्यों बैठा है ?’
एक तो भूख में वैसे ही आंखें छलक उठती हैं। उस पर ऐसी स्नेह भरी आवाज ! उसकी आंखों में आंसू मचल उठे। वह सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा। कोई उत्तर न दे सका।
मंझली चाची को सभी बच्चे प्यार करते हैं। उसकी आवाज सुनकर कादम्बिनी की छोटी लड़की बाहर निकल आई और चिल्लाकर बोली, ‘किशन मामा, रसोईघर में तुम्हारे लिए भात ढंका हुआ रखा है, जाकर खा लो। मां खा-पीकर सो गई हैं।’
हेमांगिनी ने चकित होकर कहा, ‘किशन ने अभी तक खाना नहीं खाया ? और तेरी मां खा-पीकर सो गई ? क्यों रे किशन, आज इतनी देर क्यों हो गई ?’

किशन सिर झुकाए बैठा रहा। टुनी ने उसकी ओर से उत्तर दिया, ‘मामा को तो रोजाना ही इतनी देर हो जाती है। जब बाबूजी खा-पीकर दूकान पर पहुंच जाते हैं तभी यह खाना खाने आते हैं।’
हेमांगिनी समझ गई कि किशन को दूकान के काम पर दिया गया है। उसे यह आशा तो कभी नहीं थी कि उसे खाली बैठाकर खाने को दिया जाएगा। फिर भी इस ढलती हुई बेला को देखकर और भूख-प्यास से बेचैन बालक के मुंह को निहारकर उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह आंचल से आंसू पोंछती हुई अपने घर चली गई और कोई दो ही मिनट के बाद हाथ में दूध से भरा हुआ एक कटोरा लेकर आ गई।
लेकिन रसोई घर में पहुंचते ही वह कांप उठी और मुंह फेरकर खड़ी हो गई।
किशन खाना खा रहा था। पीतल की एक थाली में ठंडा, सूखा और ढेले जैसा बना हुआ भात था। एक ओर थोड़ी-सी दाल थी और पास ही तरकारी जैसी कोई चीज। दूध पाकर उसका उदास चेहरा खुशी से चमक उठा।
हेमांगिनी दरवाजे से बाहर आकर खड़ी रही। भोजन समाप्त करके किशन जब ताल पर कुल्ला करने चला गया, तब उसने झांककर देखा, थाली में भात एक दाना भी नहीं बचा है। भूख के मारे वह सारा भात खा गया है।
हेमांगिनी का लड़का भी लगभग इसी उम्र का था। वह सोचने लगी कि अगर कहीं मैं न रहूं और मेरे लड़के की यह दशा हो तो ? इस कल्पना मात्र से रुलाई की एक लहर उसके अंतर से उठी और गले तक आकर फेनिल हो उठी। उस रुलाई को दबाए हुए वह अपने घर चली गई।

परिच्छेद-4

हेमांगिनी को बीच-बीच में सर्दी के कारण बुखार हो जाता था और दो-तीन दिन रहकर आप-ही-आप ठीक हो जाता था। कुछ दिनों के बाद उसे इसी तरह बुखार हो आया। शाम के समय वह अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी। घर में और कोई नहीं था, अचानक उसे लगा कि बाहर खिड़की की आड़ में खड़ा कोई अंदर की ओर झांक रहा है। उसने पुकारा ‘बाहर कौन खड़ा है ? ललित ?’
किसी ने उत्तर नहीं दिया। जब उसने फिर उसी तरह पुकारा तब उत्तर मिला, ‘मैं हूं।’
‘कौन ?...मैं कौन ? आ, अन्दर आ।’
किशन बड़े संकोच से कमरे में आकर दीवार के साथ सटकर खड़ा हो गया। हेमांगिनी उठकर बैठ गई और उसे अपने पास बुलाकर बड़े प्यार से बोली, ‘‘क्यों रे किशन...! क्या बात है ?’
किशन कुछ और आगे खिसक आया और अपने मैले दुपट्टे का छोर खोल कर दो अधपके अमरूद निकालकर बोला, ‘बुखार में यह बहुत फायदा करते हैं।’

हेमांगिनी ने बड़े आग्रह से हाथ बढ़ाकर पूछा, ‘यह मुझे कहां मिले ? मैं तो कल से लोगों की कितनी खुशामद कर रही हूं लेकिन किसी ने लाकर नहीं दिए।’
यह कहकर हेमांगिनी ने अमरूद सहित किशन का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया। मारे लज्जा और आनन्द के किशन का झुका हुआ चेहरा लाल पड़ गया। हालांकि यह अमरूद के दिन नहीं थे और हेमांगिनी अमरूद खाने के लिए बिलकुल लालायित भी नहीं थी। तो भी यह दो अमरूद खोजकर लाने में दोपहर की सारी धूप किशन ने अपने सिर पर से निकाली थी।
हेमांगिनी ने पूछा, ‘हां रे किशन, तुझसे किसने कहा था कि मुझे बुखार आया है ?’
किशन ने कोई उत्तर नहीं दिया।
हेमांगी ने फिर पूछा, ‘और यह किसने कहा कि मैं अमरूद खाना चाहती हूं ?’
किशन ने इसका भी कोई उत्तर न दिया। उसने जो सिर नीचा किया सो फिर उसे ऊपर उठाया ही नहीं।

हेमांगिनी ने पहेल ही जान लिया था कि लड़का स्वभाव से बहुत ही डरपोक और लज्जालु है। उसने उसके सिर पर हाथ फेरकर बड़े प्यार से भैया कहा और न जाने कितनी चतुराई से उसका भय दूर करके उससे बहुत-सी बातें जान लीं। उसने पहले तो बड़ी जिज्ञासा प्रदर्शित करके बड़े प्यार से पूछा कि तुम्हें यह अमरूद कहां और किस तरह मिले और फिर धीरे-धीरे उसने गांव-घर की बातें मां के बारे में, यहां तक कि खाने-पीने की व्यवस्था और दुकान पर उसे जो-जो काम करने पड़ते हैं उन सबका विवरण एक-एक करके पूछ लिया। और तब अपनी आंखें पोंछते हुए बोली, ‘देख किशन, तू अपनी इस मंझली बहन से कभी कोई बात मत छिपाना। जब भी जिस चीज की भी जरूरत हो चुपचाप यहां आकर मांग लेना। मांग लेगा न ?’
किशन ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक सिर हिलाकर कहा, ‘अच्छा।’
वास्तविक स्नेह किसे कहते हैं ? यह किशन ने अपनी गरीब माता से सीखा था। इस मंझली बहन में उसी स्नेह की झलक पाकर उसका रुका हुआ मातृ शोक पिघलकर बहने लगा। उठते समय उसने मंझली बहन के चरणों की धूल अपने माथे लगाई और फिर जैसे हवा पर उड़ता हुआ बाहर निकल गया।
लेकिन उसकी बड़ी बहन की अप्रसन्नता और क्रोध दिन-पर-दिन बढ़ता ही गया। क्योंकि वह सौतेली मां का लड़का है। बिलकुल असहाय और मजबूर है। जरूरी होने पर भी बदनामी के डर से घर से भगाया नहीं जा सकता और किसी को दिया भी नहीं जा सकता। इसलिए जब उसे घर में रखना ही है तो जितने दिन उसका शरीर चले, उतने दिन उससे खूब कस कर मेहनत करा लेना ही ठीक है।
घर लौटकर आते ही बहन पीछे पड़ गई, ‘‘क्यों रे किशन, तू दूकान से भागकर सारी दोपहर कहां रहा ?’
किशन चुप रहा। कादम्बिनी ने बहुत ही बिगड़कर कहा, ‘बता जल्दी।’
लेकिन किशन ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।

कादम्बिनी उन लोगों में से नहीं थी जिनका क्रोध किसी को चुप रहते देखकर कम हो जाता है। इसलिए वह बात उगलवाने के लिए जितनी जिद करती गई बात न उगलवा पाने के कारण उसका क्रोध उतना ही बढ़ता गया। अंत में उसने पांचू गोपाल को बुलाकर उसके कान मलवाए और रात को उसके लिए हांडी में चावल भी नहीं डाले।
चोट चाहे कितनी ही गहरी क्यों न हो लेकिन यदि उसे छुआ न जाए तो महसूस नहीं होती। पर्वत की चोटी से गिरते ही मनुष्य के हाथ, पांव नहीं टूट जाते। वह तभी टूटते हैं, जब पैरों के नीचे की कठोर धरती उस वेग को रोक देती है। ठीक यही बात किशन के बारे में हुई। माता की मृत्यु ने जिस समय उसके पैरों के नीचे का आधार एकदम खिसका दिया था तब से बाहर की कोई भी चोट उसे धूल में नहीं मिला सकी थी। वह गरीब का लड़का जरूर था, फिर भी उसने कभी दुःख नहीं भोगा था और घुड़की-झिड़की से भी उसका कभी परिचय नहीं हुआ था। तो भी यहां आने के बाद से अब तक उसने कादम्बिनी द्वारा दिए गए कठोर दुःख और कष्टों को चुपचाप झेल लिया था, क्योंकि उसके पैरों के नीचे कोई सहारा नहीं था। लेकिन आज वह इस अत्याचार को सहन नहीं कर पाया। क्योंकि आज वह हेमांगिनी के मातृ-स्नेह की मजबूत दीवार पर खड़ा था और इसीलिए आज के इस अत्याचार और अपमान ने उसे एकदम धूल में मिला दिया। माता और पुत्र दोनों मिलकर उस निरपराध बालक पर शासन करके, झिड़कियां देकर, अपमान करके दंड देकर चले गए और वह अंधेरे में जमीन पर पड़ा बहुत दिनों के बाद अपनी मां की याद करके और मंझली बहन का नाम ले-लेकर फूट-फूटकर रोता रहा।

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