जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
वही जर्मन पत्रकार, हाँस अपने उसी नॉर्वेजियन कैमरामैन को लिए-दिए, रित्ज़ होटल में आ धमका। मैं तो अवाक् ! वे बेर्नार्ड आँरी लेवी का इंटरव्यू लेने आए हैं। चूंकि वे मुझ पर डॉक्यूमेंटरी तैयार कर रहे हैं इसलिए मैं जिस भी देश में जाती हूँ वे पहुँच जाते हैं। मेरी तस्वीरें लेने के लिए हाँस के लिए यह हाथी जैसा खर्च आखिर कौन जुटाता है, कभी-कभी मेरा यह पूछने का मन करता है। म्युचुअलिते का कार्यक्रम, मेरा इधर-उधर जाना-आना, लेवी और अन्य लेखक, दार्शनिकों से मेरे बारे में इंटरव्यू लेना-हाँस ने ये सारे काम कर डाले। लेवी जब भी मेरे बारे में बातें करते हैं तो वे वार-बार ज़ोर देकर 'सिंबल', 'सिंबल' शब्द दुहराते हैं। बहरहाल, जर्मनी या नॉर्वे से उड़कर आए हुए हाँस के लिए पाँच मिनट की अनुमति दी गयी। लेवी ने सिर्फ इंटरव्यू ही नहीं दिया, इंटरव्यू लेने का भी मामला था।
उन्होंने कहा, “तुमसे बातें करना चाहता हूँ। न्यूयॉर्क टाइम्स में तुम्हारे बारे में लिखना चाहता हूँ।"
लंच की एक दावत रद्द करके लेवी के साथ होटल में ही लंच निबटाते-निबटाते हमारी बातचीत हुई। मैं बातचीत में कुशल नहीं हूँ। जो इंसान बातचीत में बेहद पटु था, वह बोलता रहा। मैं सिर्फ टकटकी बाँधे, उस अगाध सौंदर्य की तरफ देखती रही।
शाम को 'दफाम' का 20 वाँ वार्षिक समारोह मनाया जा रहा है। अंतोयानेत फुक का 'दफाम'। उस समारोह में मुझे सम्मान भी दिया जाना है। सम्मान प्रदान करेंगे-जैक दारीदा! मंच पर मुझे दारीदा की बगल में बिठाया गया। दारीदा काफी देर तक मुझ पर वक्तव्य देते रहे। लिखित वक्तव्य! मैंने गौर किया, फ्रेंच में लिखा गया, उनका व्याख्यान पूरे बाईस फुलस्केप कागज पर लिखा हुआ था। दारीदा ने पत्रकारों की जमकर आलोचना की। मैंने कभी पत्रकारों के यूं घेर लेने, फोटोग्राफरों के यूँ टूट पड़ने के बारे में काफी खीझ जाहिर की थी। दारीदा ने बेहद मानवीय निगाहों से मुझे देखा। वे चाहते हैं कि मैं अपने तरीके से जिंदगी जीऊँ। मेरे जरिए प्रेस अपनी ज़रूरत मिटाने में न जुटे।
इसके बाद मैंने भी थोड़ा-बहुत वक्तव्य दिया। किसी ने मेरी रचना से भी पाठ किया। फ्रेंच नारीवादी विचारक, हेलेन सिक्खूस ने भी, मेरे लेखन के बारे में वक्तव्य दिया। अंतोयानेत फुक समेत कई नारीवादी वक्ताओं ने भी अपनी-अपनी वात रखी। फक की संस्था ने मेरे खिलाफ़ फतवा जारी होने के वाद पेरिस शहर में मेरे समर्थन में एक सभा आयोजित की थी। जब मैं अपने देश में भूमिगत थी, तब उन्होंने मिशेल ईडेल नामक एक वकील बांग्लादेश भेजा था ताकि क़ानून के मामले में वे मेरे वकीलों की कोई मदद कर सकें। फुक काफी जोर देकर यह बताने की कोशिश करती रहीं कि वे मुझे ऐसे किसी देश से बचाकर लायी हैं।
मैंने मन-ही-मन सवाल किया कि अगर यह सच है तो मैं स्वीडन कैसे पहुँच गयी? मुझे तो फ्रांस आना चाहिए था। नॉर्वे के मंत्रियों का कहना था कि नॉर्वे में मेरे आश्रय लेने की बात तय हो चुकी थी, लेकिन स्वीडन कैसे बाजी मार ले गया, पता नहीं। नॉर्वे से ही एक विशेष दूत बांग्लादेश रवाना किया गया था। बांग्लादेश सरकार से मेरे बारे में बातचीत की पहल नॉर्वे के राजदूत ने ही की थी।
सरकारी नॉर्वेजियन कार्य-अधिकारी ने हँसकर कहा था, “स्वीडन ने तुम्हें हमसे छीन लिया। सच पूछो तो तुम नॉर्वे की हो।"
लेकिन असल में क्या मैं किसी की भी हूँ? मैं अपने से ही सवाल करती हूँ। मैं मन-ही-मन अपने को समझाती हूँ-सिर्फ सुनती रहो! सिर्फ देखती रहो! सिर्फ अपना दिमाग ठीक रखो। खबरदार! अहंकार को अपने आस-पास भी मत आने देना।
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