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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


जब वे दोनों मेरे सामने आयीं तो उन्होंने अंग्रेजी में खुद ही बताया कि उन दोनों का जन्म बांग्लादेश में हुआ। जब उनके अभिभावक उन दोनों को यहाँ लाए थे, तब उन दोनों की उम्र डेढ़ वर्ष थी। अव वे उन्नीस-वीस की हो चुकी हैं। वे दोनों फिर कभी अपने देश वापस नहीं गयीं। इस वक्त वे उनकी नज़रें जो मुझे अपने सामने देख रही हैं, मानो अपना देश देख रही हैं।

"तुम लोगों को कहाँ से लाया गया था?"

“अनाथ आश्रम से!" दोनों ने ही समवेत स्वर में कहा।

दोनों लड़कियाँ बेहद प्यारी थीं। जैसी आँखों को बुद्धिदीप्त कहा जाता है, उन दोनों की आँखें बिल्कुल वैसी ही थीं। वे लोग आपस में विशुद्ध ऑस्ट्रियन जुवान में बातें कर रही थीं। उन दोनों ने ही बताया कि वे कॉलेज में पढ़ रही हैं। मेरे मन में यह जानने की तीखी चाह जाग उठी कि वे दोनों देश के लिए कोई खिंचाव महसूस करती हैं या नहीं। उन लोगों के लिए यह सवाल काफी मुश्किल था। खिंचाव महसूस करती हैं या नहीं-इन दोनों जवाब में वे दोनों झलती रहीं। उन दोनों को देखकर कोई उन्हें ऑस्ट्रियन नहीं कह सकता था, लेकिन वे दोनों ही ऑस्ट्रिया की भाषा और संस्कृति की उतनी ही कुशल जानकार थीं, जितनी कोई खांटी ऑस्ट्रियन जानती है। अब अगर वे बांग्लादेश भी पहुँच जाएँ तो उन लोगों को कोई बंगाली नहीं कहेगा, क्योंकि वे दोनों बांग्ला भाषा और संस्कृति के बारे में कुछ भी नहीं जानतीं। अच्छा, आत्मपरिचय का सवाल क्या उन्हें कभी परेशान नहीं करता? मैं उन दोनों जवान औरतों की तरफ अपलक देखती रही। उधर मुझसे बात करने के लिए, मुझे अभिवादन ज्ञापित करने के लिए प्रतीक्षारत गौरी आरत आकुल-व्याकुल हो रही थीं, मेरा उस तरफ बिल्कुल ध्यान ही नहीं था। मैं सोचती रही, बांग्लादेश के अनाथाश्रम में रहकर क्या वे दोनों इस ढंग से आधुनिक हो पातीं? मेरी नज़र में आधुनिकता कभी पोशाक या चाल-ढाल की भंमिगा तक ही सीमाबद्ध नहीं रही। अपने मन को सड़े-गंधाते, पुराने कुएँ से बाहर निकाल लाना ही सच्ची आधुनिकता है। मौका मिले तो इंसान क्या नहीं बन सकता। पश्चिम की राजनैतिक और आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था, सुनियोजित शिक्षा-व्यवस्था, इंसान को आत्मनिर्भर होने की हज़ारों तरह की सुविधा देती है और जिम्मेदार इंसान के तौर पर निखर उठने की भी सहूलियत देती है और वह मौका देती है कि इंसान अपनी अतुल संभावनाओं को विकसित करे, जबकि दुनिया के हज़ारों दरिद्र और धर्मपीड़ित देशों में, इन संभावनाओं की करुण मौत हो जाती है।

हम सब इसी दुनिया के लोग हैं। चूँकि किसी का जन्म यहाँ हुआ है, इसलिए वह अच्छा खाएगा-पहनेगा, अच्छी सेहत और शिक्षा हासिल करेगा और किसी का जन्म वहाँ, उन देशों में हुआ है, इसलिए उसे कुछ नहीं मिलेगा। इसमें क्या जन्म का दोष है? जन्म तो कभी दोषयुक्त नहीं होता। मैं ख़ामोश खड़ी रही। मेरी आँखों के सामने एक भयंकर विषमता झूलती-लहराती रही। वह विषमता परिधानहीन, नंगी थी।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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