जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
'एपारशनल' में खाना खाने जाने के लिए गैवी और उसकी वीवी काफी सज-धजकर आए थे। इस रेस्तराँ में गैवी पहले भी आ चुका था। जो लोग भी मुझसे मिलने आते थे, जिन लोगों को भी वह मुझसे मिलने की अनुमति देता था, मैंने गौर किया, उन सवसे इसी रेस्तराँ में मेरी मुलाक़ात होती थी।
सात दिनों बाद मुझे यान हेनरिक का घर छोड़ना पड़ा। उसके बाद मगरमच्छ का यह बच्चा, डॅगेनस निहेटर के गेस्टहाउस में मेहमान बना। पेड़-पौधों से घिरा, एक छोटा-सा मकान! वहाँ भी एक कमरे में मैं और दूसरे कमरे में पुलिस का जत्था! वहाँ रहकर घर की पहरेदारी के लिए पुलिस! बाहर जाने-पहुँचाने के लिए पुलिस! इस घर में एक किचन मौजूद है। सुबह ही गैवी ग्लेइसमैन हरे रंग की केक समेत, उस रसोई में आ पहुँचा और मुझे जन्मदिन की शुभकामना दी। वैसे इस घर में मेरा खाना-पीना प्रायः असंभव था। वहाँ डिब्बे में सालों पहले भिगोयी गयी मछली। हेरिंग मछली वाला डिब्बा खोलते ही दर्गन्ध का ऐसा भभका फैला कि मेरा सिर भन्ना गया। आजकल अक्सर बाहर-बाहर ही खाना होता है। मारिया सत्येनियूस के घर, जो गैवी से ऊपर काम करता था यानी वह वरिष्ठ पत्रकार था, गैबी जिसके मातहत काम करता था। एक दिन लेखक यूजीन शुलगिन के विशाल एपार्टमेंट में खाना-पीना हुआ। यूजीन अकेले ही रहते हैं। उन्होंने सारा खाना अकेले ही पकाया था। यहाँ खाते समय लोग वाइन पीते हैं। चूँकि मैं वाइन की अभ्यस्त नहीं हूँ इसलिए मैंने वाइन नहीं पी। मैं तो काँटा-चम्मच-छुरी तक से ही ठीक ढंग से नहीं खा पाती। काँटे-छुरी से कुछ भी काटने लगती हूँ तो वह 'कुछ' छिटककर कहीं दूर जा पड़ता है। ये लोग बेहद स्वाभाविक तौर पर, शायद मुझे असभ्य देश का असभ्य प्राणी मान बैठे थे। यूजीन के घर पर भी गैबी मौजूद था। इसी तरह, सूयान्ते भेलर के यहाँ से भी दावत मिली। सूयान्ते, नरस्टेड नामक किसी बड़े प्रकाशन संस्था के कर्णधार थे। गैबी हर वक्त मुझे अपनी निगरानी में रखता था, ताकि कोई अन्य प्रकाशन-संस्था मेरी किसी किताब के लिए मुझसे अनुबंध न कर ले। सूयान्ते, गैबी के दोस्त थे। अस्तु, तय हुआ कि मेरी सारी किताबें, अब से नरस्टेड ही छापेगा।
गैबी चाहे जितनी भी बातें बनाए, मैं जानती हूँ, मेरी किताबों के लिए फिलहाल कोई भी सिर के बल चलकर नहीं आएगा। अभी जो ये लोग मेरी किताबें छापना चाहते हैं, वह शायद इसलिए कि इन लोगों का यह ख़याल है कि मैंने विस्फोटक कछ लिख मारा है. लेकिन बांग्ला से अनुवाद का इंतजाम कैसे हो? 'लज्जा' का अंग्रेजी अनुवाद चारों तरफ बहुतायत में उपलब्ध था, लेकिन मैं तो यह चाहती ही नहीं थी कि 'लज्जा' का प्रकाशन हो। फ्रांस से तो इसलिए प्रकाशित होने वाला था, क्योंकि इसकी अनुमति पहले ही दी जा चुकी थी। उन दिनों फ्रांस को मना करने का मुझे कोई उपाय नहीं मालूम था। अब नए सिरे से मैं यह किताव किसी को नहीं देना चाहती थी। हाँ, मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी कि किसी भी देश में इसका अनुवाद हो।
गैबी ने उन्हें यह बता दिया कि चूंकि 'लज्जा' का अनुवाद अच्छा नहीं हुआ है, इसलिए मैं बेहद मर्माहत हूँ।
अब मैं पहली बार अंग्रेजी अनुवाद लेकर बैठी। मेरी अंग्रेजी बेहद मामली है। लेकिन उस किताब का अनुवाद मुझे छिः छिः करने लायक तो नहीं लगा। उधर क्रिश्चन बेस भी कह गए कि पेंगुइन ने 'लज्जा' का जो अनुवाद प्रकाशित किया है, वह पढ़ा नहीं जाता।
मैंने कहा, "मेरी किताब ही वैसी है। किसने कहा कि मेरी वह किताब बहुत अच्छी है। सिर्फ अनुवाद ही गड़बड़ है? जैसी किताब है, वैसा ही अनुवाद है।"
मैंने बार-बार याद दिलाया कि 'लज्जा' मुख्यतः तथ्यों पर आधारित उपन्यास है। "इस किताब में पश्चिम के उन्नत स्तर के उपन्यासों की खूबियाँ खोजने की कोशिश करना भूल होगी।"
एक दिन स्वीडन के लेखक-लेखिकाओं के साथ परिचय कार्यक्रम का आयोजन किया गया। नरस्टेड का प्रकाशक चूँकि स्वीडिश पेन क्लब का सदस्य था, इसलिए यह कार्यक्रम उनके घर पर ही आयोजित किया गया। एक-एक करके बहुत-से लोगों से जान-पहचान हुई। वाइन और स्नैक्स का इंतज़ाम किया गया था। सभी लोग खाते-खाते मुझसे गपशप भी करते रहे।
उसी वक्त वहाँ गैबी आया और उसने कहा, “चलो, अब चलना होगा।"
"लेकिन, जाना कहाँ होगा?"
"असल में जाना कहीं नहीं है। बस घर वापस चलो।"
"घर वापस जाकर क्या करूँगी?"
"कुछ भी नहीं, बस..."
"चुपचाप बैठी ही तो रहूँगी..."
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ