जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
असल में गैबी ने मगरमच्छ के बच्चे की तरह मेरी बस झलक-भर दिखाने का इंतज़ाम किया था। नकचढ़ लोग शायद इसी क़िस्म की हरक़त करते हैं। अपना भाव बढ़ाने का जब कोई और उपाय नहीं मिलता तो किसी भी कार्यक्रम में देर
से आते हैं और दिखाने के लिए फटाफट बाहर भी निकल जाते हैं। अब सचमुच कोई काम होता, तो मैं उसकी बात मान भी लेती, लेकिन जब कोई काम नहीं है, तो मैं उसकी बात क्यों मानें?
मैंने गैबी से कहा, "घर क्यों जाऊँ? वहाँ मेरा कोई काम भी नहीं है, बल्कि यहाँ सबसे जान-पहचान हो रही है, मुझे अच्छा लग रहा है।"
गैबी ने बनावटी मुस्कान से अपना चेहरा रंगते हुए कहा, “इन लोगों को इतना वक्त देना सही नहीं है। बहुत हुआ!"
हाँ, गैबी के साथ यह समस्या तो थी ही! इसके बाद सभी लोग गैवी को पकड़ेंगे- "मुझसे भेंट करा दो! मुझसे बात करा दो।"
उस वक्त अपनी शर्ट की कॉलर से धूल झाड़ते हुए वह शायद जवाव दे, "नहीं, मिलना तो संभव नहीं है। लेखिका जीव है, इन दिनों लिखने में व्यस्त है..." या ऐसा ही कुछ। मुझे यूँ डुबाए रखकर और अपनी मन-मर्जी के मुताविक मुझे ज़रा-ज़रा उड़ाते हुए असल में वह मेरा भाव नहीं बढ़ाता, बल्कि अपना भाव बढ़ाता है!
इधर कुछेक दिन गैवी के घर में ही कागज-पत्तरों में डूबे रहना पड़ा। भाषण तैयार करना था। पहली बार किसी सभा में अंग्रेजी में भाषण देने के लिए मुझे तैयारी करनी थी। अब ङ नहीं थे। जो इंसान इस वक्त मेरी सबसे ज़्यादा मदद कर सकता था, वह ङ थे। अब निखिल दा का ही आसरा-भरोसा था।
"निखिल'दा, कुछ बताइए, क्या बोलूँ?"
निखिल'दा ने स्पष्ट आगाह कर दिया, “थोड़ा-बहुत कुछ बोल देना! मुल्लाओं के आक्रमण, तुम्हारे छिपे रहने के दिनों में देश में क्या-क्या घटा, इसे बारे में कुछ मत वोलना।"
"तो फिर बोलूँ क्या?"
“कहना, स्वीडिश क्लब के कार्यक्रम में आयी हो। नॉर्वे में भी कार्यक्रम है। तम वहाँ भी जा रही हो। वस!"
"बस? मतलव? ये सभी लोग तो जानते हैं कि देश में मेरी फाँसी की माँग की जा रही थी। फतवा की बात भी ये लोग जानते हैं। मुझे देश से निकल आना पड़ा, यह भी ये लोग जानते हैं, तभी तो मुझे सुनने को पागल हो रहे हैं।"
"भले ही सुनने को पागल हो रहे हों, लेकिन तुम कुछ नहीं बोलोगी। तुम कहना, तुम औरतों के लिए लिखती हो! औरतों के अधिकारों के लिए थोड़ा-बहुत लिख लेती हो। तुम्हारा लिखा हुआ इस्लामी कट्टरवादियों को पसंद नहीं आया।
खैर, उन लोगों को पसंद नहीं आया, तो क्या हुआ? देश में बहुतेरे लोग तुम्हारे पक्ष में भी हैं। इसीलिए तुम औरत की आज़ादी और अधिकार के पक्ष में लिखती रहोगी। बस!"
“बस, मतलव? देश में बहुतेरे लोग मेरे पक्ष में हैं, यह तो झूठ है।"
“सुनो, झूठ ही बोलना। तुम्हें अपने देश लौटना है या नहीं? देश के बारे में एक शब्द भी बुरा मत कहना।"
“देश के बारे में भला क्यों कहने जाऊँगी? जो कुछ घटा, वही कहूँगी।"
"नहीं कहना, तुम आराम करोगी! यूरोप देखोगी। अपने देश में औरतों की जैसी जिंदगी देखी है, उस बारे में वक्तव्य देने के लिए, तुम्हें विभिन्न देशों से आमंत्रण मिले हैं, तुम इसीलिए आयी हो। यही सब बोल देना।"
“अगर वे लोग पूछे कि मैं देश कब लौटूंगी?''
“कहना, अभी तय नहीं है। लेकिन जल्दी ही लौटोगी, ऐसा ही कुछ कह देना।"
"न्ना! लाग यहा समझग कि म टाल रहा है। झूठ बोल रही हूँ। में यह कंस कहूँ कि मैं यूरोप की सैर करने आयी हूँ? यह भी कोई वात हुई।?"
"देखो, अगर तुमने उल्टी-पुल्टी वातें कीं, तो देश नहीं लौट सकोगी-"
"सच बात कहूँगी, तो देश नहीं लौट पाऊँगी?''
"नहीं! और सुनो, अगर कोई फतवा के वारे में सवाल करे, तो कहना कि निहायत छोटे-से दल ने फतवा जारी किया है। फतवा देना, बांग्लादेश में कानून के खिलाफ़ है। सरकार ही गैर-कानूनी काम करने वालों के लिए सज़ा का इंतज़ाम करेगी।"
“यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? सरकार ने तो कोई इंतज़ाम नहीं किया, करेगी भी नहीं! मुझे क्या सरकार का गुणगान करना होगा?"
"हाँ!"
“यह जो सरकार ने मेरे खिलाफ मुकदमा ठोंका है, इसका भी ज़िक्र न करूँ?"
"ना!"
“यह जो समूचा देश मुझे जान से मारने को पागल हो उठा था, यह भी न कहूँ?"
"ना!"
"कितने खौफनाक दिन गुज़ारने पड़े मुझे ! दिन-पर-दिन! रात-पर-रात...छिपकर रहना पड़ा...।"
“यह सब कुछ भी नहीं...कुछ मत कहना।"
“यह जो पुलिस ने रात के अंधेरे में, मुझे प्लेन पर सवार करा दिया-यह भी नहीं?"
"ना..."
काफी देर तक मैं हतवाक बैठी रही। मेरे सामने रहस्यों में लिपटी एक दुनिया थी। रहस्य का वह जाल धीरे-धीरे मुझे ढकता जा रहा है। मेरी बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है कि यह रहस्य-जाल मुझे ढकता क्यों जा रहा है?
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