जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल, गैबी के कंप्यूटर पर मैंने अपना वक्तव्य तैयार कर डाला। कंप्यूटर पर मेरी बांग्ला लिखने की रफ्तार खासी तेज़ है! अंग्रेज़ी काफी धीरे-धीरे लिखती हूँ।
गैबी बार-बार तकादा करता रहा, "क्या बात है, लिखने में इतनी देर क्यों हो रही है?"
अच्छा, वह क्या यह समझ रहा है कि कंप्यूटर को मैं पहली बार हाथ लगा रही हूँ? मैं मन-ही-मन सोचती रही-अगर वह ऐसा सोचता है, तो सोचने दो। मुझे क्या फर्क पड़ता है? उसकी गलतफहमी सुधारने की भी क्या ज़रूरत है?
"दुनिया भर से हज़ारों-हज़ार पत्रकार आने को उतावले हैं। लेकिन हर किसी को अनुमति नहीं दी जा सकती। हद-से-हद पाँच सौ लोग! यह कार्यक्रम जहाँ होना है, वह सरकारी मकान है! रसबड़ में! जगह ज़्यादा बड़ी नहीं है। जान-बूझकर ही उस छोटी जगह में कार्यक्रम आयोजित किया गया है, सुरक्षा कारणों से।"
उफ! सुरक्षा! सुरक्षा! यह सुनते-सुनते मेरे कान पक गए हैं।
चूँकि अब ङ जैसा मेरे आस-पास कोई नहीं है, मेरे समूचे तन-बदन पर “अंग्रेजी न जानना" किसी ना-छोड़ मच्छर की तरह डंक मारता रहा। वह डंक झेलते हुए ही मेरी नज़र गैबी के कागजों के स्तूप पर पड़ी। मुझे देने के लिए या मेरी खोज-खबर लेने के लिए जो चिट्ठी-पत्री आती थी, उसी ढेर में मुझे उत्तर पुरुष या उत्तर बंग नामक एक बांग्ला पत्रिका झाँकती हुई दिख गयी। वह पत्रिका मुझे विस्मय-विभोर करती हुई यह जानकारी दे गयी कि यह पत्रिका बंगाल से नहीं; दूर-दराज़, प्रायः उत्तरी गोलार्ध के अजानी-अचीन्ही भूमि, स्वीडन से प्रकाशित होती है। उस पत्रिका के संपादक ने गैबी को कई बार फोन भी किया और यह जानने की कोशिश करता रहा कि मुझसे भेंट हो सकती है या नहीं। जाहिर है, गैबी ने मना कर दिया, लेकिन गैबी जितना-जितना मुझे हिदायत देता रहा कि मैं सवाल-जवाब भी अंग्रेजी में करूँ, उतना ही मैं 'असंभव' की रट लगाए हुए थी। मेरी जैसी अंग्रेजी थी, उससे घरेलू काम-काज भले ही चला लिया जाए, मंच पर नहीं चलाया जा सकता।
"मैं बांग्ला में ही बोलूँगी। तुम किसी को अनुवाद के लिए तय करो।"
फ्रांस में यही हुआ था! फ्रांसीसी लोग अपनी मातृभाषा के अलावा और किसी भाषा में बात करना पसंद नहीं करते! यहाँ तक कि अंग्रेजी की काफी अच्छी जानकारी होने के बावजूद टीवी, रेडियो या मंच कार्यक्रमों में वे लोग दुभाषिए का इंतजाम करते हैं, लेकिन आपको भी अपनी भाषा में बातचीत करनी होगी। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं थी कि अंग्रेजों के साथ उन लोगों की लंबी जंग जारी थी, इसलिए वे लोग अंग्रेजी से नफरत करते थे, बल्कि मुझे इसमें अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान नज़र आया।
गैबी कुछेक पल खामोश बना रहा।
उसके बाद वह धाराप्रवाह गल-गलाकर जो बोल गया, उसका सार-संक्षेप यँ था कि यहाँ अंग्रेजी भाषा में ही सवाल-जवाब चलाना होगा, क्योंकि इस कार्यक्रम में दुनिया भर के जो पत्रकार आ रहे हैं उनमें अधिकांश विदेशी हैं। फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, नॉर्वे, फिनलैंड, डेनमार्क, आइसलैंड, बेल्जियम, नेदरलैंड, ब्रिटेन, ऑस्ट्रिया, स्विट्ज़रलैंड, पुर्तगाल, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान-दूर-दराज़ के सभी देशों के टीवी चैनल और पत्रकार मौजूद रहेंगे। बहुत पहले से ही यहाँ आकर, उन लोगों ने निमंत्रण-पत्र जुटाना शुरू कर दिया है। अनुमति-पत्र के बिना वहाँ चींटी को भी घुसने नहीं दिया जाएगा।
"चींटी का घुसना भी नहीं चलेगा?"
गैबी ने सिर हिलाकर जवाब दिया, "नहीं चलेगा।"
गैबी ने उस बंगाली संपादक, गजेंद्र या नरेंद्र का फोन मिलाकर, मुझे पकड़ा दिया।
मैंने उनसे पूछा, “क्या आप अनुवाद कर सकेंगे? बांग्ला से स्वीडिश?"
गैवी वीच में ही कूद पड़ा। उसने तैश-भरे लहजे में कहा, "स्वीडिश हुआ, तो नहीं चलेगा।"
"बांग्ला से अंग्रेजी?" मैंने पूछा!
"ना...।" उधर से जवाब आया।
"तो वे कर क्या सकते हैं?" गैवी गुर्राया, मैं स्टॉकहोम-निवासी, कृष्णा दत्त का फोन नंवर दे सकता हूँ! वे बेहद कुशल हैं और भली हैं।"
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