जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
भली होने की बात सुनकर मैं उछल पड़ी। जैसे भरी हुई नदी में बहते-उतराते, किसी डॉगी को किनारे का पता मिल जाए। कण्णा दत्त से फोन पर बात करके यह तय कर लिया कि कब और कहाँ मिलना है। दूसरी छोर की इंसान, विना देखे ही मुझे देवी-जैसी लगी। फिलहाल समस्या का समाधान तो हुआ। मैं निश्चित होकर घूमने-फिरने लगी।
उस दिन मैंने साड़ी पहनी। पीले रंग की बालुचरी! इस दौरान मैंने थोड़ी-बहुत सिगरेट पीना भी शुरू कर दिया था। जहाँ-तहाँ मैं सिगरेट के कश लगा रही थी। जिस जगह सिगरेट पीने का नियम नहीं था, मेरे लिए वहाँ भी धूम्रपान के लिए जगह बना दी जाती थी। पुलिस की गाड़ी में धूम्रपान निषिद्ध है। लेकिन मेरी खातिर वह नियम तोड़ दिया गया, सुनने में आया, वीआईपी अगर नियम तोड़ें तो कोई हर्ज़ नहीं। मैं ठहरी वीआईपी। सेलिब्रेटी! मैं स्टार थी! सुपर स्टार! आ-ह! मैं कितनी कुछ हूँ। यह बात मुझसे ज़्यादा मेरे आस-पास के लोग जानते थे!
कार्यक्रम में सुरक्षा का कड़ा इंतज़ाम था। तीसरी दुनिया या किसी मुस्लिम देश के पत्रकारों को अंदर दाखिल नहीं होने दिया गया। जिसे भी अंदर जाने दिया, उसकी काफी देर तक खाना-तलाशी ली गयी। दुनिया के बड़े-बड़े पत्रकार! लेकिन उनसे क्या? मेटल डिटेक्टर से आपाद मस्तक जाँच के बाद ही अंदर दाखिल होने दिया गया। कार्यक्रम शाम को था! सुबह से ही लंबी लाइन लग गयी। क्रिश्चन बेस भी पैरिस से आ पहुँची, साथ में 'लज्जा' भी! फ्रेंच भाषा में 'लज्जा' प्रकाशित हो गयी थी। मैं वह किताब हाथ में लेकर, उसका 'कवर' देखती रही। अंदर के पन्ने थोड़ा उलटने-पलटने के बाद, मैंने वह किताब एक ओर रख दी। पढ़ने का तो कोई उपाय था नहीं। अगर बांग्ला किताब होती, तो उसी वक्त झपट लेती और पढ़ना शरू कर देती और यह देखती कहाँ, कौन-सी अशुद्धि रह गयी है। कोई हिज्जे की भूल या वाक्य-गठन की गड़बड़ी रह गयी है या नहीं, यह पता करती। एक बार प्रकाशक से भी झड़प हो जाती। कहीं कोई भूल न रह गयी हो, ऐसी कोई किताब आज तक मुझे नसीब नहीं हुई। क्रिश्चन बेस नयी किताब छापने के लिए बेहद उतावली हो उठी थीं।
उसने आते ही तकादे पर तकादा शुरू कर दिया, “अगली किताब की मैनुस्क्रिप्ट दे दो। अभी दे दो।"
वह ठहरी अमीरों की भी अमीर! पैरिस की अत्याधुनिका, सुरुचिशीला, मननशीला औरत की साज-पोशाक कैसी
होनी चाहिए, क्रिश्चन डिओर, शैनेल, ईव सां लंरओ-ठीक क्या होती है, अगर क्रिश्चन वेस को न देखती, तो सच ही मुझे जानकारी नहीं होती।
मंच पर गैबी, विदेश मंत्री-मार्गरेटा डगलस, संस्कृति मंत्री विर्गित फ्रिगेवो, मैं और मेरी बगल में मेरी किताव की अनुवादिका कृष्णा दत्त! मन में बातें छिपाने की वजह से मेरी बेचैनी का कोई अंत नहीं था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। स्वीडन के आमंत्रण-निमंत्रण पर मैं नाचते-नाचते, हँसते-खिलखिलाते, वगले वजाते-बजाते चली आयी हैं। जैसे मैंने इस जन्म में इस्लाम को लेकर कोई भी कड़वा जुमला नहीं कहा। जैसे किसी ने कभी मेरे खिलाफ मुकदमा नहीं ठोंका। जान जोखिम में डालकर रात के अँधेरे में मझे कभी दौड़ना-भागना नहीं पड़ा। जैसे मुझ जैसा सुखी और शांत जीवन किसी का भी नहीं है। यह सब कहने को मेरा मन कतई राजी नहीं था, लेकिन किसी एक आशंका ने मुझसे यह सब कहलवा लिया-अगर यह सब नहीं कहा, तो अपने देश लौटने की राह मेरे लिए हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाएगी। सच यही था, मेरे लिए चाहे और सारे दरवाजे बंद हो जाएँ, लेकिन देश लौटने की राह कभी बंद न हो। ऐसा मैं किसी भी शर्त पर, किसी भी विनिमय के मोल पर नहीं चाहती थी। मैं अपने देश वापस लौटना चाहती हूँ। अगर संभव हो, तो इसी पल !
पत्रकार उत्तेजना और उत्सुकता से उमड़े पड़ रहे थे।
"देश में क्या-क्या हुआ था?"
"ख़ास कुछ नहीं।"
"कट्टरवादियों के बारे में कुछ वताएँ।"
"बताने लायक कुछ भी नहीं है।"
"अचानक देश छोड़कर यहाँ क्यों चली आयीं?"
“कार्यक्रमों में आमंत्रित की गयी, इसलिए! यहाँ से नॉर्वे जाना है। वहाँ का भी आमंत्रण मिला है।"
“यहाँ कितने दिन रहेंगी? कब जाना चाहेंगी? क्या इसी देश में पनाह लेंगी।
मैंने छटते ही जवाब दे डाला। यह किसी निखिल सरकार के आदेश-अनरोध के मुताबिक नहीं था।
“पनाह मैं किसी भी देश से नहीं माँगूंगी। मैं किसी भी देश में रहने नहीं जा रही हूँ। मैं अपने देश लौट जाऊँगी।"
"क्या आप जा सकेंगी?"
"जरूर जा सकूँगी। अपने देश में न जा पाने लायक कोई बात नहीं है।"
हाँ, मैंने कह तो दिया कि देश न जाने लायक कोई बात नहीं है और मझे इसका विश्वास था, तभी कहा। हाँ, मुझे यही लगा था, लेकिन इस बात का मो लेशमात्र भी अंदाज़ा नहीं था कि और कुछ भले ही कर पाऊँ, मगर मेरा देश वापस लौटना नहीं होगा।
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