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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


उन्नीस दिसंबर की रात, गवर्नमेंट हाउस के सामने स्पैनिश नौजवानों का धरना देखने के बाद मैंने पैदल-पैदल ही गॉथिक या कैथेड्रल भी देख डाला, लेकिन खास मन नहीं भरा। लोग कहते हैं कि बार्सेलोना कैथेड्रल विलक्षण हैं, लेकिन मुझे स्ट्रसबर्ग के कैथेड्रल ही सर्वाधिक विस्मयकारी लगे हैं। और गाउदि! गाउदि के बारे में यहाँ के लोग काफी बढ़-चढ़कर बोलते हैं। गाउदि यहाँ के मशहूर मूर्तिकार थे। साठ साल पहले उन्होंने एक गिरजा के निर्माण में हाथ लगाया था-वह काम आज भी चल रहा है! लोग अभी तक मिट्टी की खुदाई में लगे हैं, मशीनें आज भी जोर-शोर से घूम रही हैं। इतनी भयंकर ऊँची चीज देखते ही, मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आई। इसलिए नहीं कि यह गिरजाघर है। किसी जमाने में धर्म की बड़ी-बड़ी इमारतें देखने का मुझमें कोई उत्साह नहीं था, लेकिन अब मुझमें पुरानी स्थापत्य कला देखने की दिलचस्पी बढ़ गई है, लेकिन नए सिरे से गिरजा-निर्माण करने की, मुझे कोई वजह नज़र नहीं आती। चूँकि इस गिरजे का निर्माण गाउदि ने शुरू किया था, इसलिए इसे पूरा करना ही हागा या जापानी सलाना आकर क्लिक-क्लिक करक तस्वार उतारते हैं, इसलिए इस गिरजे का निर्माण जरूरी है। यह तो कोई बात नहीं हुई। हाँ, गाउदि ने एक नया काम जरूर किया। गिरजे की दीवारों पर गाय, घोड़े, साँप, मछली, घांघे, बत्तख, मुर्गी की आकृतियाँ भी चित्रित की गई हैं। सिर्फ सलीव में विंधे ईशू और मदर मेरी ही निप्पाप मुद्रा में खड़ी रहें, यह बात उन्होंने स्वीकार नहीं की। इस वेढव गिरजाघर के बजाय गाउदि द्वारा निर्मित घर-मकानों की डिजाइनों ने मुझे मुग्ध किया। गाउदि का यह गिरजा पूरी तरह पब्लिक के पैसों से बनाया जा रहा है। जनता इस स्थापत्य को सरकार या किसी संस्था के हाथों में सौंपने की किसी शर्त पर भी राजी नहीं है। दुनिया में हर जगह ही भावुक और आवेगपूर्ण लोग मिल जाते हैं मगर लगता है, स्पैनिश लोग कुछ खास हैं, विलियन-विलियन राशि के काम का दायित्व, बदस्तूर अपने जिम्मे ओढ़ लिया है। गाउदि की कला-कारीगरी मैंने दिन के वक्त देखी। बीस तारीख की शाम और अगली सुबह तथा दोपहर मैंने विविध आयोजन, कार्यक्रम, मीटिंग और भाषणों में गुजार दिया।

मैड्रिड से संस्कृति-मंत्री आ पहुँची! बेहद आकर्षक महिला हैं और काफी लोकप्रिय भी! उन्होंने किताव पर मेरा हस्ताक्षर लिया। गाल से गाल सटाकर तस्वीर उतरवाई! प्रेस कॉन्फ्रेंस में मेरे समर्थन के लिए जोरदार अपील की। अन्य अनगिनत प्रकाशकों, संपादकों, लेखकों ने मेरी किताब पर चर्चा की। एक व्यक्ति ने मेरे लेखन का पाठ भी किया।

सिल्विया कुरेनी ने 'लज्जा' का एक हिस्सा पढ़कर अंत में कहा, 'इस पुस्तक का प्रधान चरित्र, सुरंजन कहता है-मैं एक इंसान था, लेकिन मुसलमान कट्टरवादियों ने मुझे इंसान नहीं रहने दिया, मुझे हिंदू बनाकर छोड़ा-इस अंश ने मुझे मुग्ध कर दिया।'

सिल्विया का जन्म इटली में हुआ। बीस वर्ष पहले बार्सेलोना आई थीं। 'हाँ, किसी के प्यार में पड़कर, इस देश में चली आईं। वैसे वह प्यार टिक नहीं पाया। लेकिन वे वार्सेलोना के प्यार में बँधकर, यहीं रह गईं। इन दिनों वे एडीशन बी प्रकाशन में नौकरी करती हैं। सच तो यह है कि बार्सेलोना ऐसा शहर है, जिससे अनायास ही प्यार हो जाए! तरुणाई से उफनता हुआ शहर! यहाँ भी, आधी रात तक तमाम रेस्तरांओं में दिन का उजाला बिखरा रहता है और गप-शप से गुलज़ार रहता है। यहाँ का खान-पान भी लंदन या पैरिस शहरों जैसा, कोई लंबा-चौड़ा मामला नहीं है! कुछ-कुछ समुद्री, कुछ-कुछ मिर्च-मसालेदार! यहाँ का पारम्परिक टिपिकल आहार है, मसालेदार, मछली-भात! हालाँकि यहाँ मोटे चावल का भात ही मिलता है, खाने में भी हमारे विरुद्ध चावल के भात जैसा स्वाद भी नहीं आता, लेकिन भात तो होता है। मैंने भूमध्य सागर पर निर्मित, टिकटैकटो नामक रेस्तराँ में भात खाया! नया-नया रेस्तराँ! ओलंपिक के समय, वार्सेलोना के मेयर पासकुआल मैरागेल ने दो वर्ष पहले, यहाँ एक नया शहर बसाया था। अस्तु, यहाँ नए-नए घर-मकान, होटल, रेस्तरा! सुना है. गर्मी के मौसम में. यहाँ के रेस्तराँओं में इतनी भीड होती है कि बैठने की जगह नहीं मिलती। नॅरडिक देशों से, बर्फ में डूबे लोग स्पेन में धूप सेंकने चले आते हैं। वैसे धूप सेंकने का मेरा भी मन होता है, लेकिन अकेले नहीं, उसके साथ! उसे तो मैंने यूरोप चले आने के बाद खो दिया है मगर खोने का दर्द अभी नहीं खोया। वह दर्द मेरे सीने कं हाड़ तले छिपा रहता है। बीच-बीच में टीस उठती है! मेरी नज़रों के सामने समुद्री पक्षी सीगल उड़ता हुआ और में ऑक्टोपस, कैलामर, मॉन्गफिश वगैरह का भोग लगाने में मग्न हूँ। तरह-तरह की मछलियाँ! दरअसल वार्सेलोना मछलियों का शहर है। मेरे साथ चंद दिलदार लोग थे। उन लोगों के साथ गप-शप करते-करते मैंने सोच लिया, मैं ला रंवला में टहलने, समुद्री तट पर धूप सेंकने, वार्सलोना दुबारा आऊँगी। मैं फिर-फिर आऊँगी। असल में मैं जहाँ भी जाती हूँ। जिस देश या शहर में भी जाती हूँ, मैं मन-ही-मन अपने से कहती हूँ-यहाँ फिर आऊँगी! लेकिन फिर क्या आना होता है?

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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