जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
एक दिन कैटालूमिया के संस्कृति मंत्री मुझसे मिलने आए। मेयर साहब ने सिटी हॉल में आमंत्रित किया। उन्होंने गर्मी में मुझे दुवारा वार्सेलोना आने की दावत दी।
उन्होंने कहा, “तुम अगर गर्मी में यहाँ दुवारा आओ तो मैं भी तुम्हारे देश, सैर करने आऊँगा।" वाकई वे काफी रूमानी शख्स हैं। उन्होंने मंतव्य प्रकट किया कि चेहरे-मोहरे से मैं पेरुवियन लगती हूँ। इस किस्म का मंतव्य मैं लंदन में भी सुन चकी हैं। यह मंतव्य मेरे अंग्रेज दोस्तों ने दिया था। पेरुवियन! बादामी रंग की अपनी हैट पहनकर जब मैं कहीं बाहर निकलती हूँ तो अपने से ही पूछती-"क्यों जी, पेरुवियन कैसी हो?"। मन-ही-मन मैं एक दौर हँस भी लेती हूँ, कहाँ मयमनसिंह और कहाँ पेरु! यह दुनिया धीरे-धीरे सिमटकर छोटी होती जा रही है। बार्सेलोना के मेयर जनाब सोशलिस्ट पार्टी के हैं, यहाँ खासे लोकप्रिय भी हैं। मेयर ने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया। उन्होंने भास्कर गरगुआल की बेटी को भी अपने यहाँ बुलाया था। वह लड़की फ्रांस से आई है। गरगुआल का स्थापत्य-शिल्प वाकई मुग्ध करता है। खासकर ब्रॉन्ज और ताँबे में उनके द्वारा गढ़ा गया नारी-चेहरा! सन् उन्नीस सौ छत्तीस में गरगुआल का निधन हो गया था। आखिरी दौर में वे मूर्ति के शरीर से गाल या स्तन या पेट का हिस्सा काटकर, शन्य देते थे। शन्यता को उन्होंने अपने कला-कर्म में इस कदर भर लिया था कि ऐसा लगता है, जैसे काफी हद तक इस शून्यता ने ही उनके शिल्प को पूर्णता का रूप दे डाला है। सिटी हॉल में उनके आखिरी जीवन की एक कलाकृति संगृहीत है। ग्रीक पुराण का जिउस घोड़े पर सवार, समुद्र की राह दौड़ता हुआ! ब्रॉन्ज पर कारीगरी। घोड़े का पेट नदारद! नजरें सबसे पहले उस खाली जगह पर ही टिक जाती हैं। गरगुआल द्वारा गढ़ी गई नारी-मूर्तियों की जाँचें काफी मोटी-तगड़ी! इन माटी-मोटी जाँघों का क्या मतलव हो सकता है? यह क्या चक्कर है? उनकी बेटी ने बताया- 'मेरे डैड औरतों के प्रति बेहद आसक्त थे।'' चलो, मान लिया, लेकिन औरतों की जाँघे क्यों अचानक पेड़ की जड़ों जैसी मोटी हो उठी? शरीर के वाकी अंगों के साथ ऐसी बेमेल! सामंजस्यहीन! औरतों को कर्मठ और शक्तिशाली जताने के लिए? शायद यही बात हो! ऑस्तो के गुस्ताव विगिर्लन की कला काफी कुछ इसी किस्म की है। स्वस्थ मों और स्वस्थ औरतों की भरमार! इन मूर्तियों से एक समूचा वागान अटा हुआ।
बार्सेलोना में सबसे ज्यादा मोहक था, विश्वविद्यालय का कार्यक्रम ! शुरू-शुरू में मैंने इसे ज्यादा अहमियत नहीं दी। वाद में देखा, यह तो विराट समारोह है। उस दिन क्रिसमस की छुट्टियाँ हो चुकी थीं, लेकिन किसी भी विद्यार्थी ने कैंपस न छोड़ा। वे सभी लोग तसलीमा को सुनने का इंतज़ार कर रहे थे। प्रोफेसर समुदाय भी मेरी राह देख रहे थे। पूरा ऑडिटोरियम विद्यार्थियों से भरा हुआ! बैठने के लिए कहीं तिल-भर भी जगह नहीं थी। लोग-बाग वहाँ घंटों पहले से खड़े थे। मेरे लेखन पर चर्चा हुई। चार-चार प्रोफेसरों को बोलना था। उसके बाद मेरी बारी! मैंने भी थोड़ा-बहुत बोल दिया। एक अंग्रेज सज्जन ने, जो अनुवाद के हेड थे, मेरे भाषण का कैटालान भाषा में अनुवाद किया। विद्यार्थियों के चंद सवालों का भी जवाब देना पड़ा। उसके बाद आटाग्राफ का धूम मच गई। इसी दारान सबक हाथी में स्पानश "लज्जा"! प्रोफेसर वर्ग ने एक तरह से मुझे खींच-घसीटकर वहाँ से बाहर निकाला। समूचे विश्वविद्यालय में पोस्टरों की धूम-'वेलकम तसलीमा।' भूमध्य सागर के तट पर भी बंगाल के मयमनसिंह की लड़की को लेकर हो-हुल्लड़! अच्छा, धरती क्या धीरे-धीरे छोटी होती जा रही है?
स्पैनिश लोग अंग्रेजी बहुत कम जानते हैं! सुरक्षाकर्मी तो अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं जानते। यहाँ तीन-तीन गाड़ियाँ पुलिस! विशाल होटल में गुप्त कमरा! मानो झक-झक करता हुआ कोई समूचा का समूचा मकान! कमरे के सामने चौबीसों घंटे सरक्षाकर्मी! उन लोगों पर सचमच मझे बेहद तरस आया। अरे भई, स्पेन में मझे मारने कौन आएगा? स्पेन में पहले दिन ही राष्ट्रीय टेलीविजन पर काफी देर तक लाइव कार्यक्रम आयोजित किया गया था। उसमें बार्सेलोना में बैठे-बैठे ही मैड्रिड के उस कार्यक्रम में मुझे शामिल होना पड़ा था। उस कार्यक्रम में मेरे वक्तव्य पर लंबी-चौड़ी बहस छिड़ गई थी। ग्रनाडा के इस्लामिक यूनिवर्सिटी के रेक्टर और स्पैनिश बुद्धिजीवी लोग भी उस कार्यक्रम में मौजूद थे। गंजे सिर वाले मुसलमान, अब्दुर रहीम मदीना ने खासे तैश-भरे लहजे में ऐलान किया- "देखिए, मुस्लिम फंडामेंटलिज्म जैसी दुनिया में कोई चीज़ नहीं है। सारा कुछ पश्चिम की बनी-बनाई बात है। यह सब कोलोनियल धारणा है...कोरा उपनिवेशवाद का मामला।" ग्रनाडा में प्रचुर मुसलमान बसते हैं। अगर उन लोगों को भी मेरा अता-पता मिल जाए तो वे मुझे मार डालने का काम करेंगे या नहीं, मैं नहीं जानती।
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