जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैंने क्या किया है? नारी-आंदोलन किया है? इस्लाम की आलोचना की है? अव अगर किताव प्रकाशित हुई, तो लोग इन दोनों तथ्यों की खोज-बीन के लिए उमड पड़ेंगे। लेकिन, उस किताब में इसके बारे में, बूंद-भर भी कुछ पाएँगे? एक जमले में अगर सीधी-सच्ची बात कही जाए, तो उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। फिर क्या मिलेगा? मिलेगा ढेर सारे तथ्य! जिस तथ्य के संदर्भ में कुछ करना-धरना उनके हाथ में नहीं है। अस्तु, वह किताब पढ़कर मुझे गाली-गलौज करने के अलावा वे और कछ नहीं करेंगे। मैं फ्रेंच प्रकाशक क्रिश्चन बेस, सूयान्ते बेइलर और अन्यान्य प्रकाशकों को यह बात बता चुकी हूँ और इस बात पर काफी ज़ोर देकर कहा है- “देखो, यही तम लोग, जो मेरी किताबें छापने को पगला उठे हो, वही एक दिन मुझसे मुँह फेर लोगे। तुम लोगों को चाहिए, मेरी पहली किताब के तौर पर कोई ऐसी किताब चनो जिसे पढ़कर पाठकों के मन में, मेरे प्रति आग्रह जागे और वे लोग कम-से-कम यह समझ सकेंगे कि मैं मुख्यतः किस विषय पर लिखती हूँ और क्यों लिखती हूँ। मामली-सा ही सही मुझे और मेरी जंग को जानेंगे। अगर तुम लोग यह चाहते हो कि मेरी जिन रचनाओं के लिए मुल्ला लोगों ने भड़ककर फतवा दे डाला, जिस वजह से लाखों-लाखों लोगों ने मेरी फाँसी की माँग की है तो मेरे वे कलाम प्रकाशित करो।"
लेकिन नहीं, वे लोग ऐसा करने को राजी नहीं हुए। मैंने गैबी को भी सूचित कर दिया कि मुझे साहित्य-दूत की ज़रूरत नहीं है। मैं इतनी बड़ी लेखिका नहीं हूँ। झमेले में नहीं पड़ना है। मैं खुद ही इन लोगों को एक-एक करके पत्र लिख देती हूँ। गैवी ने मुँह बनाते हुए प्रकाशकों की सारी चिट्ठियाँ मुझे थमा दीं। जर्मनी के प्रकाशक हॉफमैन एंड कम्पे काफी बड़े प्रकाशक हैं। उन्होंने कहा है कि वे मुझे एडवांस में पचास हज़ार डॉलर देंगे। उतने सारे रुपए देखने में कैसे लगते हैं, इतने सारे रुपयों की कल्पना कैसी होती है, मुझे नहीं मालूम। मैंने गौर किया, रुपए की रकम देखकर मैं ज़रा भी विचलित नहीं हुई। जिस प्रकाशक ने मुझे पाँच हज़ार रुपए एडवांस देने को कहा था, उसके साथ भी मैंने यही वर्ताव किया, जो मैंने पचास हजार रुपए एडवांस देने वाले प्रकाशक के साथ किया था। नॉर्वे से भी तीन प्रकाशकों ने पत्र लिखे थे। मैंने उनमें से उस एक को चुन लिया, जिसे मुसलमान कट्टरवादियों ने गोली मारकर जख्मी कर दिया था। उनका कसूर बस इतना ही था कि उन्होंने सलमान रुशदी का 'सैटानिक वर्सेज' छापा था। कटटरवादियों की गोलियों से रुशदी के जापानी प्रकाशक ने दम तोड़ दिया था। नॉर्वे के प्रकाशक विलियम निगर बच गए।
उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुझे एक सौ पचास हज़ार स्वीडिश क्रोनर प्रदान किए गए। संस्कृति मंत्री, विर्गित फ्रिग्रेवा ने मेरे हाथों पर कूट टूरवोलस्की पुरस्कार रख दिया। पिछले साल यह पुरस्कार सलमान रुशदी को मिला था। डेढ़ लाख क्रोनर! अगर फी क्रोनर छह रुपए भी माने जाएँ, तो नौ लाख रुपए हुए! पुलिस से लैस मैं, ड्रटनिंग गटान के नरडिया नामक बैंक में एकाउंट खोल आयी। उस बैंक में भी सभी लोग मुझे पहचान गए। अब मैं दफ्तर, दुकान, रास्ता-घाट, घर-बाहर, जहाँ भी जाती थी, सभी लोग मुझे झट पहचान जाते थे। मुझे सभी के आदर, अभिनंदन प्राप्त होने लगे। मुझे डेढ़ लाख क्रोनर से कहीं ज्यादा इंसानों का प्यार कीमती लगा। रुपए तो हवा में उड़ते रहे! निहायत उपेक्षित और अवहेलित होते रहे।
सर्द देश था! सर्दी के मौसम बिना ही सर्द! गैबी की वीवी लेना मुझे दुकान में ले गयी और उसने एक भारी-भरकम ओवरकोट और बूट जूते खरीद दिए थे। बैंक में रुपए जमा होने के साथ-साथ मैंने सबसे पहले लेना का उधार चुकाया। बूट जते! मुझे इस किस्म के जूते पहनने की आदत नहीं थी। अपने देश में मैं सैंडल पहनती थी। जूते भी पहनती थी, तो और डिज़ाइन के। वह इस क़िस्म के बेडौल, भारी-भरकम जते नहीं थे।
लेना ने कहा, “सर्दियाँ आ रही हैं। तुम अगर ये जूते नहीं पहनोगी तो मरोगी।"
मरूँगी? मैं मन-ही-मन हँस पड़ी। अब तुम लोग मुझे मौत का खौफ़ मत दिखाओ। यह जो शांत-विशिष्ट, पूँछ-विशिष्ट स्टॉकहोम है, यहाँ चारों तरफ जो सुनसान नीरवता है; जिस देश में भला छोड़कर कभी कुछ बुरा नहीं होता, सभी लोग इतनी सतर्कता से नियमों का पालन करते हैं; कहना चाहिए कि यहाँ दुर्घटना या हादसों का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है-यहाँ और कुछ भले ही दाखिल हो, मौत के दाखिल होने की कोई गुंजाइश नहीं है।
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