जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
स्टॉकहोम शहर की थोड़ी-बहुत सैर भी हुई। गैबी ही मुझे यहाँ-वहाँ घुमा लाया। इस निराले-निर्जन शहर को अपनी भरसक, भरपूर आँखों से पूरी तरह देख लूँ। विल्कुल तस्वीर जैसा ख़बसूरत यह देश! सारा कुछ पोस्टकार्ड जैसा! यहाँ की राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति, मर्द-औरतों का अधिकार-ज़रा-ज़रा करके मुझे सारी हक़ीक़त प्राप्त होती रही। स्टॉकहोम थोड़ा-बहुत घूम लिया मैंने। पैदल-पाँव, गाड़ी में, रास्ते
में, पार्क में, लेक के किनारे, नदी किनारे, टीले पर, समतल पर-मैं जी भरकर घूमती रही। जितना-जितना मैं घूमती रही, विस्मित होती रही। मैं शहर, कस्वों, गाँवों में सिर्फ खूबसूरती ही नहीं देखती। मेरे साथ जो होता है, मैं उससे सवाल-पर-सवाल करती रहती हूँ। वह मेरा स्वभाव बन चुका है।
"यहाँ की आवादी कितनी है?"
"आठ करोड़!"
"आयतन में कितना बड़ा है यह देश?"
"इतना..." मैंने उँगलियों पर गिनकर देखा, वांग्लादेश से पाँच गुना ज्यादा बड़ा।
"शिक्षित-दर कितनी है?" मेरा सवाल सुनकर, मेरे साथ वाला अचकचा गया। "यहाँ सब शिक्षित हैं।"
हाँ नौवीं, क्लास तक पढ़ाई हर किसी के लिए अनिवार्य है। अगर माँ-बाप बच्चे को स्कूल नहीं भेजते, तो सरकार का आदमी आकर बच्चे को जबरन स्कूल में भर्ती करा आता है। बच्चे के जन्म के बाद उसका दायित्व माँ-बाप से ज्यादा सरकार का होता है। यहाँ हर बच्चा देश का नागरिक होता है और देश के नागरिक का लालन-पालन माँ-बाप करते हैं। वैसे बच्चे का लालन-पालन सरकारी पैसों पर ही होता है, लेकिन बच्चे के तेरह-चौदह वर्ष की उम्र तक लालन-पालन वही करते हैं। इस उम्र तक, लड़के-लड़कियाँ अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। उसके बाद बच्चे अपने पिता का घर छोड़ देते हैं और सरकारी शिक्षा-भत्ता की रकम के सहारे अपनी जिंदगी शुरू करते हैं।
दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले स्वीडन में जन-कल्याण नियम सबसे बेहतर हैं। राज्य के नागरिकों की सारी जिम्मेदारी राज्य ही ग्रहण करता है। खाने-पहनने, ऐशो-आराम की सारी व्यवस्था राज्य ही करता है। ऊपर से हर किसी के लिए शिक्षा और चिकित्सा का इंतज़ाम भी राज्य ही करता है। एक और बात मुझे हैरत में डाल गयी है-वह है गणतंत्र! मुझे नहीं लगता कि ऐसा खूबसूरत गणतंत्र, दुनिया में और कहीं भी है या हो सकता है। इसी तरह मैं हर रोज़ ही नयी-नयी बातें जानना चाहती हैं। जितना-जितना जान रही हूँ, और-और जानने का आग्रह उतना ही बढ़ता जा रहा है।
विर्गित फ्रिग्रेवा ने एक दिन मुझे दावत भेजी! विर्गित यहाँ की संस्कृति मंत्री हैं। वे ऐसे-ऐसे कपड़े पहनती हैं कि उनके दोनों वक्ष बाहर निकले रहते हैं। उनका यह हुलिया देखकर मैं नज़रें घुमा लेती हूँ, लेकिन कहाँ, कोई तो कुछ नहीं बोलता, न कोई निंदा करता है। वे सब पोशाकें पहनने का विर्गित का मन होता है, इसलिए वे पहनती हैं। उन्होंने मुझे प्रासाद जैसे रेस्तराँ में खाना खिलाया। इन विशाल-विशाल जगहों में खाने-पीने का विशाल इंतज़ाम! कोई सोच सकता है कि वे इस देश की मंत्री हैं? ये लोग बेहद सहज और आंतरिक होती हैं। आम लोगों के साथ आराम से मिलती-जुलती हैं। वहाँ बांग्लादेश में मंत्रियों की गाड़ी ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाती
हुई गुज़र जाती है।
जो पत्रकार, दूर-दराज़ के देशों से इस पुरस्कार वितरण समारोह में शामिल होने आए थे, काफी दिनों तक इसी शहर में बैठे रहे। वैसे हाथ-पर-हाथ धरे खाली नहीं बैठे थे। गैवी का हाथ-पाँव पकड़कर जो करना चाहिए था, वही करते रहे। उन सबकी मुझसे एक इंटरव्यू की फर्माइश थी, गैबी ने मना कर दिया। वी. वी. सी. सी. एन. एन, गार्डियन, ला मंद, सूडयेत जुइटुंग-सवको एक शब्द-ना! मैंने देखा, इनमें से एक ने आखिर गैवी को मना ही लिया। उसे काबू में करते ही मुझ तक पहुँचा जा सकता था। उसका नाम था-मेरी ऐन वीमर! गैवी को काबू में करने का एक ही उपाय था, उसके पूरे परिवार को किसी बड़े रेस्ताराँ में खिलाना! ग्रैंड होटल का कोई रेस्तराँ हो या अपार्शनल! मेरी ऐन यहाँ आकर ग्रैंड होटल में ठहरी हैं! ग्रैंड में ही खिलाने का इंतज़ाम किया गया। वेश्याओं के दलाल और अहम हस्तियों के सेक्रेटरी लोगों का स्वभाव-चरित्र काफी कुछ इसी तरह का होता है। गैवी को खिला-पिलाकर मेरा इंटरव्यू लिया जाना था। न्यूयॉर्क की पत्रकार मेरी ऐन ने कहाँ-कहाँ मेरा पीछा नहीं किया था। वे बांग्लादेश गयीं। उस वक्त में भूमिगत थी और कहीं अतल में जा छिपी थी। मेरी ऐन समूचे बांग्लादेश में मुझे खोजती फिरीं। मेरे घर वालों ने उन्हें यही बताया कि मेरा अता-पता उन्हें नहीं मालूम, लेकिन उन्हें उन लोगों की बातों पर विश्वास नहीं आया। हालांकि काफी उम्रदराज हो चुकी हैं, मगर यात्रा करते हुए वे कभी नहीं थकतीं। वे मुझे इधर-उधर सूंघती फिरी मानो कहीं मेरी गंध पाते ही वे मुझे इंटरव्यू के लिए दवोच लेतीं। उन्होंने ढाका, मयमनसिंह का चप्पा-चप्पा छान डाला। जब वहाँ मैं नहीं मिली, तो अंत में मेरे घर वालों से बातचीत और गपशप की और अब स्वीडन आ पहुँचीं। उन्हें इतनी क्या जरूरत थी? 'न्यूयार्कर' पश्चिम की काफी मशहूर पत्रिका है। कहना चाहिए कि नंबर वन पत्रिका है, लेकिन इससे क्या होता है! क्या होता है, मतलब? इंटरव्यू देना ही होगा। गैबी ने ज़िद पकड़ ली। इंटरव्यू देने के बजाय मुझे उससे मिलने की चाह जाग उठी। जो औरत अभी-अभी मेरे देश की परिक्रमा करके आयी है, मेरे नाते-रिश्तेदारों से मिलकर लौटी है, मुझे उसे छूने का मन हो आया। शायद उस स्पर्श से ही मुझे अपने देश की थोड़ी-बहुत खुशबू मिल पाए। मैंने मेरी ऐन को छू-छूकर देखा। देर तक उनका हाथ थामे रही। उन हाथों ने शायद मेरी माँ का हाथ छुआ हो। मेरे अब्ब, मेरे भाई-बहनों को छुआ हो। उनकी वह हथेली, मेरी हथेली से बिल्कुल अलग थी। रंग और रेखाओं का अंतर था। लेकिन उन हथेलियों को देखते हुए मैंने अपने अंदर काफी गर्माहट महसूस की। मेरी ऐन को मेरे अंदर के अहसासों का आभास नहीं हुआ। बस, वे तो परम खुश थीं। उन्हें तो इसी बात की खुशी थी कि मेरे दिल की तमाम ख़बरें उन्हें मिल गयीं और यही सब ख़बरें लेकर वे चली गईं।
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