जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
अंग्रेज लेखक संगठन के आमंत्रण पर जब मैं लंदन में थी, नेशनल थियेटर में मेरी कविताओं का पाठ किया था, मशहूर हेलेन केनेडी ने! दर्शक टिकट खरीदकर सिर्फ हम दोनों की बातचीत सुनने आए थे। उस बार हो-हल्ला भी कम नहीं हुआ। कनवे हॉल में, त्रुटिहीन सुरक्षा में, व्याख्यान का आयोजन किया गया था। थियेटर के बाहर मुसलमान भीड़ लगाए मेरे खिलाफ नारे लगा रहे थे। कट्टरवादियों ने मेरे खिलाफ पर्चे वाँटे थे। अंग्रेजी के कवि, साहित्यकार, मानववादी-सब एकजुट होकर, मेरे और मत-प्रकाश के पक्ष में प्रतिवाद करने लगे। हाउस ऑफ कॉमन्स में व्याख्यान! उस दिन मैंने पहली बार थोड़ी राहत महसूस की थी कि वहाँ मैं अकेली वक्ता नहीं थी। हालाँकि मैं ही आकर्षण का केंद्र थी, मेरे साथ और भी कई वक्ता मौजूद थे। वैसे सभी वक्ताओं की चर्चा तसलीमा ही थी। उस वार लंदन में थियेटर से जुड़ी अमृता से मुलाकात हुई थी। अमृता विल्सन वर्णवाद विरोधी आंदोलन में भी शामिल है। विदेश आने के बाद मुझे बंगालियों के सानिध्य का मौका नहीं मिला। अमृता के आमने-सामने बैठकर, बांग्ला में बोलते हुए मेरे प्राण जुड़ा गए। अमृता अपने गोरे पति का त्याग करके उन दिनों अफ्रीका मूल के एक काले लड़के के साथ रहती थी।
मुझे सिर पर बिठाकर अंग्रेज लेखक, कलाकारों को नाचते-कूदते देखकर अमृता ने कहा, "तुम्हें ये लोग, जो इतना सम्मान दे रहे हैं, कहीं तुम यह मत समझ लेना कि ये लोग तुम्हारे बारे में सोचते हैं, तुम्हारे लिए चिंतित हैं। असल में ये सारा कुछ, अपने स्वार्थ की वजह से कर रहे हैं! स्वार्थ पूरा होते ही ये लोग तुम्हें उठाकर फेंक देंगे।"
ख्याति के शीर्ष पर आसीन होने के जमाने में इस बात पर विश्वास करने का मन तो नहीं करता, भरोसा करने में तकलीफ होती है, लेकिन मैंने इस बात पर विश्वास करने की कोशिश की थी। चूँकि मैंने इस बात पर भरोसा किया, इसीलिए सैकड़ों शैम्पेन खोलने, सैकड़ों लाल गलीचा बिछाने, सैकड़ों अभिनंदन, प्रशंसा, पुरस्कार, सम्मान के बावजूद, मैंने अपने दिमाग को बर्बाद नहीं होने दिया। मैं यह कभी नहीं भूली कि मैं कौन हूँ, कहाँ पैदा हुई हूँ, कहाँ से आई हूँ।
जब पुलिस का दौर खत्म हुआ, जब मैं अकेली-अकेली आने-जाने लगी तो मुल्लों से नहीं, बल्कि सरमुंडे, बूटधारी, लोगों से जरूर डरती रही हूँ। बर्लिन में भारी-भारी मिलिटरी बूट-जूते, तीन किस्म के लोग पहनते हैं। निओ-नाजी, समलैंगिक मर्द, समाज त्यागी 'पांक' ! समकामियों को उनकी उँगली की अंगूठी और उनकी त्रिभंगी आकृति से पहचाना जा सकता है। 'पांक' लोगों को, उनके समूचे जिस्म में खुदे गोदने या उनके पीले-हरे-लाल-बैंगनी रंग के बालों से या बदन पर लपेटे हुए, सादे रंग की जंजीरों से पहचाना जा सकता है। बाकी बूट-जूते अगर वह फौजी न हो, तो वह निओ-नाज़ी होता है। अगर मैं सौ हाथ दूर से भी बूट-जूते देख लेती हूँ, तो डर से सिकुड़ जाती हूँ। नाजी के हाथों से बचने के लिए, ऐसी सुरक्षा-पुलिस की जरूरत होती है, जिसे निओ-नाजी से कोई सहानुभूति नहीं है। सिर्फ मुझे ही नहीं, हर विदेशी को इसकी जरूरत पड़ती है। इन सब देशों में हम लोग विदेशी हैं। मुझ जैसी हजारों-हजार लोग, जो अश्वेत हैं, यानी जिनकी गोरी चमडी नहीं है. उस देश में 'विदेशी' कहकर उन्हें गालियाँ दी जाती हैं, लेकिन उनके यहाँ अगर कोई गोरी चमड़ी अंग्रेज या डेन या फ्रेंच या डच लोग आते हैं तो उन्हें विदेशी कहकर गाली नहीं दी जाती। जो अश्वेत बच्चे इस देश में पैदा हुए हैं उन सबको भी विदेशी ही कहा जाता है और जिंदगी-भर विदेशी ही कहा जाएगा।
पश्चिम के वर्णवाद की भयावहता के बारे में जानने के बाद, मैंने छोटू' दा से फोन पर बार-बार कातर अनुनय-विनय किया, 'देश छोड़कर मत जाओ। विदेश में बसने के लिए मत जाओ। यहाँ जो भी आएगा, वर्णवाद का शिकार हो जाएगा। जाति-विरोधी, वर्ण-विरोधी, दरिद्र-विरोधी लोगों के अत्याचार का शिकार हो जाएगा। इससे बेहतर है, अपने ही देश में सिर ऊँचा किए शान से रहो।' छोटू' दा ने बात नहीं मानी।
इन सब देशों में प्रचंड वर्णवाद है, यह सच है, लेकिन यहाँ भी वर्णवाद के प्रति प्रबल प्रतिवाद होता है। यहीं यह बात साबित होती है कि सामाजिक डार्विनवाद या सोशल डारविनिज्म का दर्शन गलत है। यहाँ भी विषमता के विरुद्ध संग्राम होता है, औरत के समानाधिकार के लिए आंदोलन होता है। यहाँ भी मानवता के गीत गाए जाते हैं। दास-प्रथा के खिलाफ, साम्राज्यवाद के खिलाफ, उपनिवेशवाद के खिलाफ, युद्ध और रक्तपात के खिलाफ जुलूस निकालने, सभाएँ करने का काम, सबसे ज्यादा ये गोरे ही करते हैं।
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