जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मुमकिन है, कैसर भी यही करे। वह यहीं रह जाएगा। बाद में वह अपने बीवी-बच्चों को भी यहीं बुला लेगा। अगर उसने इसी देश में रस-बस जाने की कोशिश की तो इस देश की सरकार, जरूर मुझे ही दोष देगी। वे लोग कहेंगे कि मैंने झूठ बोलकर अपने प्रेमी को मेहमान के तौर पर बुला लिया और अब उसे इसी देश में बसाने की साजिश रच रही हूँ। वे लोग सारा इलजाम मुझे देंगे, इस ख्याल से मैं परेशान हो उठी। मेरे अंग-अंग में बेचैनी फैल गई। मैं कभी झूठ नहीं बोलती। मैं कभी गुनाह नहीं करती, लेकिन कैंसर के लिए मैं यह ग्लानि क्यों ढोऊँ? वैसे कैसर भी शायद यह समझ रहा था कि मैं उसे अब सच ही प्यार नहीं करती। हम दोनों के बीच कहीं कोई सुर कट गया है। अब मुझसे अपना पुराना गीत गाया नहीं जा रहा है। वीसा खत्म हो जाने के बाद कैसर चला गया। वह वीसा की मियाद बढ़ाना चाहता था मगर मैं ही राजी नहीं हुई। हवाई अड्डे से मैं ही उसे लेकर आई थी। मैं ही उसे वहाँ पहुँचा आई। मेरे घर से ज्यादा, वह उपसला, अपनी बहन के यहाँ रहा। प्यार के लिए उतावली होकर मैंने हजारों-हजार माइल दूर से अपने प्रेमी को बुलाया और मुझे ही देखना पड़ा कि उस प्रेमी के दिल में भी प्यार नहीं रहा। अब इसके बाद क्या रहा मेरे पास? कुछ भी नहीं! चारों तरफ सन्नाटा! निचाट खालीपन! समूची जिंदगी पर शून्य पसरा हुआ!
औरत-मर्द के प्यार के बीच ही मेरी जिंदगी गुजर रही थी! लेकिन, सोल हैनके निलसन के प्यार ने मुझे खासा हिलाकर रख दिया। सोल स्वीडिश लड़की थी। आधी स्वीडिश, आधी जर्मन! उसकी माँ जर्मन. बाप स्वीडिश! सोल का जन्म यहीं हआ और वह पली-बढ़ी भी यहीं। जब मैं स्वीडन पहुँची। यहाँ के विदेश मंत्रालय से मुझे ढेरों खत थमा दिए गए। उन्हीं खतों में सोल-निलसन का भी खत था। उनकी तरफ से चाय-कॉफी का नहीं, उनके यहाँ रहने का आमंत्रण था। मैं जितने दिनों चाहूँ। उनके यहाँ रहूँ। अगर चाहूँ, तो जिंदगी-भर भी रह सकती हूँ। उस खत में जाने क्या था! स्नेह ! ममता! बाद में भी सोल निलसन के खत मिलते रहे। लंबे-लंबे खत! हर खत पाँच-छः पन्नों का। वे खत अनोखे किस्म के थे। हर दिन ही तो कितने-कितने खत मिलते रहते हैं। किसी और का खत पाकर, उससे संपर्क करने की चाह कभी नहीं जागी, लेकिन एक दिन निर्जन साँझ के वक्त, अचानक मैं सोल को फोन कर बैठी। फोन की दूसरी छोर से, सोल नामक लड़की ने कुछ ऐसे लहजे में बातचीत की। मानो वह अर्से से मेरी आत्मीय हो!
"तो चली आओ न!" यह जुमला उछाल देना मेरा स्वभाव है।
लेकिन सोल सचमुच चली आई। मुझसे करीब हाथ-भर ज्यादा लंबी! बेहद सुंदर अंग्रेजी बोलती है। अंग्रेजी बोलते हुए उसकी जुबान पर स्वीडिश लहजा नहीं होता।
“तुमने इतनी अच्छी अंग्रेजी कहाँ सीखी?"
"भारत में!" जवाब मिला।
भारत वह दो-तीन बार गई है। गैब्रिएला के पास! गैब्रिएला भारत में जर्मन पत्रकार थी। वह उसी से मिलने जाती थी। यह वही गैब्रिएला थी, जो जर्मनी से 'डात्जाइट' के लिए मेरा इंटरव्यू ले गई थी।
“तुम्हें इतना सब कैसे मालूम? तुम तो सोल हो!"
लेकिन सोल को जानकारी है! वह नियमित रूप से जर्मन पत्रिका पढ़ती है। खासकर गैब्रिएला का अखबार! सोल मेरे लिए रसगुल्ले की व्यंजन-विधि, काजू, बादाम, जलेबी बनाने की विधि, थोड़े-से गर्म मसाले, भारतीय शास्त्रीय संगीत का कैसेंट-यह सब वह एक पैकेट में रखकर ले आई। लिडिंगों घर में जब मैं नहीं मिली। तो वह सामान दरवाजे पर रखकर और एक खत लिखकर वापस लौट गई। रात को जब मैं दरवाजा खोलने लगी तो ठिठक गई। वे चीजें देखकर मैं संकोच से गड़ गई। मैं तो भूल ही गई थी कि सोल आने वाली है। बिल्कुल दक्षिणी छोर के किसी छोटे-से शहर से, वह छः घंटे का ट्रेन-सफर तय करके, यहाँ तक आती है! सोल उसी रात मिल गई। वह अगली भोर की ट्रेन पकड़ने के लिए नीचे बरामदे में सोई हुई थी।
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