जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
सोल काफी कुछ मेरी बड़ी बहन जैसी हो गई। बहन वह हो गई या मैंने ही उससे अनुमति लिए बिना, इस आसन पर बिठा दिया था। सोल दो-तीन बार भारत हो आई, इसलिए वह भारतीय नहीं बन गई। वह यूरोपीयन ही है, लेकिन तुम अगर दिन-भर, महीने-भर ऐसे लोगों में रहो, जो तुम्हारी संस्कृति के बारे में कछ भी नहीं जानते तो ऐसे में अगर कोई तुम्हारी या किसी और संस्कृति के बारे में हल्की-फुल्की-सी भी जानकारी रखता है, तो वह तुम्हें सबसे अपना लगता है! बिल्कुल अपने घर का इंसान! इसीलिए सोल भी मुझे परम आत्मीय लगती है! सोल भी आराम से मेरे इस लिडिंगो वाले घर में रह जाती है। मैं जहाँ जाती हूँ, मेरे साथ-साथ चल पड़ती है। काफी कुछ घर के प्राणी जैसी! कभी वह रसोई साफ कर रही है, कभी मेरे लिए चाय बनाकर ला रही है। अगर मैं कछ लिख रही होती हैं या मेरा ध्यान किसी काम में केंद्रित है, तो मुझे लिखने में असुविधा न हो, यह सोचकर वह मेरे करीब भी नहीं फटकती। मैंने सोल के माँ-बाप, भाई-बहन के बारे में जानना चाहा। उसकी सारी कहानी सुननी चाही। पता नहीं, चूँकि मैं अपनों से दूर हूँ, इसलिए या पूर्व में संयुक्त परिवार में पली-बढ़ी हूँ, इसलिए मुझमें यह सब जानने का आग्रह हमेशा सिर उठाए रहता है। सोल अपनी माँ के बारे में बताती है कि कैसे उसकी माँ, युद्ध-ध्वस्त जर्मनी की दरिद्रता झेलते-झेलते भागकर स्वीडन चली आई थी। यहाँ एक स्वीडिश सज्जन से उसकी भेंट हुई! दोनों ने शादी भी कर ली। दो बच्चों के जन्म के बाद, पिता जाने कहाँ चला गया। वह कहाँ गया, कोई नहीं जानता। माँ ने मेहनत-मशक्कत करके अकेले ही दोनों बच्चों को-सोल और उसके भाई को पाल-पोसकर बड़ा किया। सोल का अब अपने पिता या भाई के साथ कोई वास्ता नहीं है। हाँ, सिर्फ माँ की खोज-खबर वह लेती रहती है। कभी-कभार, वह दक्षिण के किसी छोटे-से शहर में, अपनी माँ से मिलने भी जाती है।
सोल ने विवाह क्यों नहीं किया। मैंने उससे पूछा था। विवाह? उसे कोई पसंद नहीं आया, इसलिए! सोल ने जवाब दिया। मैंने काफी ध्यान से सोल की कहानी सुनी है।
'मेरा छोटा-सा घर है! कमरे में कितावों का ढेर! बीचोबीच एक छोटी-सी मेज! मेज पर टाइपराइटर!" सोल बताती है।
“मुझे जो तुमने अपने घर में रहने की दावत दी थी? अगर मैं पहुँच जाती, तो मुझे ठहराती कहाँ?" मैंने पूछा।
"तुम्हारे लिए मैं अपना वेडरूम खाली कर देती और अपने लिए, पढ़ने-लिखने के कमरे में एक बिस्तर डाल लेती।" उसने जवाब दिया।
सोल वाकई काफी कुछ बहन जैसी! माँ जैसी! सोल सौ प्रतिशत गैर-स्वीडिश लगती है। इस देश की वाशिंदा होते हुए भी उसका इस देश के लोगों जैसा स्वभाव-चरित्र बिल्कुल नहीं है। हमारी रोज-रोज की बातचीत में बाधा पड़ी। सोल की छुट्टियाँ खत्म हो गई। उसे वापस लौट जाना पड़ा। वैसे सोल क्या काम करती है, यह में अच्छी तरह नहीं जान पाई। सोल ने बताया कि वह बेहद छोटा-सा यानी मामूली काम करती है। मामूली काम यह था कि बूढ़े-बूढ़ी लोगों के घर जाकर, उनका काम-काज कर देना। यानी समाज-सेवा का काम! सोल को देखकर मैं ताज्जुब में पड़ जाती हूँ। वह किसी भी विषय पर बातचीत कर सकती है? नहीं, आलतू-फालतू बातें नहीं करती। उसमें यथेष्ट बुद्धि है! काफी तजुर्बा है! काफी लिखती-पढ़ती है, लेकिन जाने क्यों तो उसे ऐसा कोई काम नहीं किया जाता। जहाँ वह अपने पांडित्य को सार्थक कर दिखाए। यहाँ तक कि मेरे चंद व्याख्यान भी उसने लिख दिए थे। मैं क्या कहना चाहती हूँ, इसकी जानकारी लेकर, उसने सजाकर लिख दिया और मुझे फैक्स कर दिया। मैंने स्वीडिश बुद्धिजीवी कुछ कम तो नहीं देखे। सोल उनमें से किसी से बूंद-भर भी कम नहीं, बल्कि कई क्षेत्रों में उसके ज्ञान की परिधि काफी विस्तृत है। मैंने कोशिश की कि उसे 'डगेनस निहेटर' में पत्रकार की नौकरी मिल जाए। मैंने अर्ते रुख के नाम खत लिखकर उसे दे दिया कि सोल पत्रकार के तौर पर बहुत अच्छा कार्य करेगी। ऐसी प्रतिभा उपेक्षित पड़ी है। इसे आप अपनी संस्था में शामिल कर लें।
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