जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बांग्लादेश में समलैंगिक लोगों से मेरी भेंट नहीं हुई थी या हो सकता है, मेरी भेंट हुई हो, लेकिन कोई यह जाहिर नहीं करता कि वे लोग समलैंगिक हैं। विएना की नारी-कल्याण मंत्री योहना डोनल की सेक्रेटरी से मेरी बातचीत हो रही थी।
बातों ही बातों में मैंने पूछा, “तुम्हारी शादी हो गई है?"
मुझे चौंकाते हुए उस लड़की ने जवाब दिया, “ना!"
“क्यों? कोई मर्द पसंद नहीं आया?" मैंने पूछा।
"मैं समलैंगिक हूँ!" उसने सीधा-सपाट जवाब दिया।
"अरे! यह क्या बात हुई?"
उस वक्त मैं और ज्यादा जानने को उतावली हो उठी, “अच्छा, तुम समलैंगिक कैसे हो गईं?"
"बचपन से ही मैं ऐसी हूँ! जब मैं अपनी दादी की गोद में खेला करती थी। दादी जब मुझे गोद में लेती थी तो मुझे उनके यौनांगों का स्पर्श मिलता था। उनका स्पर्श पाकर मैं बेहद पुलक महसूस करती थी। उसके बाद, जब मैं बड़ी हुई तो मैंने महसूस किया कि मैं लड़कियों की तरफ आकर्षित होती हूँ। उनकी तरफ मुग्ध निगाहों देखती हूँ। लड़कियों के उभारों पर हाथ रखते ही मुझे शारीरिक सुख मिलता है! इन्हीं सब लक्षणों से मैं समझ गई कि मैं समलैंगिक हूँ। आजकल मैं अपनी प्रेमिका के साथ सहवास करती हूँ।"
"ओ अच्छा !"
अपनी आँखों से सबसे ज्यादा समलैंगिक मैंने जर्मनी में देखो। मुझे साल-भर के लिए बर्लिन की डेआआडे स्कॉलरशिप मिल गया। वहाँ पहुँचने के तीन दिनों बाद ही मेरी जान-पहचान क्रिश्चन इयेन से हुई। वह जर्मनी के ह्यूमैनिस्ट संगठन की प्रेसीडेंट है। वह भी समलैंगिक है। उसकी काफी समलैंगिक मित्रों से भी मेरा परिचय हुआ। यहाँ तक कि हम सबने बलिन के समलैंगिक बार कफ को भी सैर की। वाकई वह देखने लायक दृश्य था। बर्लिन की सड़कों पर वे लोग एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले चलते-फिरते हैं, बार में बैठे-बैठे एक-दूसरे का आलिंगन कर रहे हैं, चूम रहे हैं। मेरे लिए यह बिल्कुल नया तजुर्बा है। जिंदगी में जो कभी न देखा, न सुना, मैं अपनी आँखों के सामने घटता हुआ देख रही थी। लड़के एक-दूसरे के बदन पर ढलके पड़ रहे हैं। मेरी एक मित्र मेरे साथ थी। उसने बताया कि इन लोगों की चाल-ढाल भी लड़कियों जैसी है। मैंने फिर टोका।
"क्यों, लड़कियों की चाल-ढाल कुछ और तरह की होती है? समलैंगिक मर्दो का रंग-ढंग 'लड़कियाना' होता है। इस 'लड़कियाना' शब्द पर मुझे सख्त एतराज है।"
“सभी समलैंगिक पुरुष लड़कियाना नहीं होते। हाँ, कोई होता है। कसरत करके, पेशियाँ फुलाकर हमेशा खासा 'मैचो-मैचो' भाव होता है। यह भी एक और तरह की अदा होती है। पहले वाले से बिल्कुल उलट! कोई तथाकथित मर्दनुमा हाव-भाव दिखाने में आराम महसूस करता है, कोई तथाकथित लड़कियाना हाव-भाव दिखाकर राहत महसूस करता है।"
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