जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
देश-देश में, मेरी देह-रक्षा के आयोजन किए गए हैं। क्या मेरी देह इतनी ही मूल्यवान है कि इसकी रक्षा करनी ही होगी? मैंने बहुत बार यह सवाल भी किया और खुद ही जवाब भी दे डाला कि नहीं! मेरे जैसी लाखों दह, इस दुनिया में सुरक्षाहीन जिंदा हैं। मेरे लिए कोई अलग नियम क्यों होने लगा? मेरी देह को निश्चित करना और इस देह को सुरक्षा देना-दोनों ही इस दुनिया की राजनीति है। जो पश्चिमी दुनिया मुझे सुरक्षा दे रही है, उसी पश्चिमी दुनिया के लिए मुझ जैसी, तीसरी दुनिया की अदना लेखिका का मोल बूँद वरावर भी नहीं है। वे लोग तो सुरक्षा इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि वे लोग ज़माने-भर को दिखाना चाहते हैं कि मानवाधिकार में उनका दृढ़ विश्वास है। अपनी भलमनसाहत दिखाने के लिए वे लोग मेरा इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे ही भलमनसाहत दिखाने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी, तब मुझे लात मारने में इन लोगों के पैर ज़रा भी नहीं कॉपेंगे। ये लोग क्या कभी मुड़कर भी देखते हैं, जव मेरे देश जैसे दरिद्र देश की लड़कियाँ-औरतें दासीवृत्ति, पतितावृत्ति करने को लाचार हो जाती हैं? जब वे लोग अनाहार दम तोड़ देती हैं? जब उनकी हत्या कर दी जाती है? जब वे लोग वलात्कार की शिकार होती हैं? जव उन लोगों को गिद्ध-सियार नोंच-नोंचकर खा जाते हैं? जब मर्द उन्हें निगल जाते हैं? जब धर्म उन लोगों को हड़प जाता है? जव मेरे रंग की लाखों औरतें काल के गाल में समा जाती हैं, सिर्फ इसलिए कि उन लोगों की चमड़ी का रंग, मेरी चमड़ी जैसा है? ऐसी औरतों को तो गोरी चमड़ी वाले, हमेशा स हो जरा कमतर-इंसान समझते आए हैं।
मैं यहाँ क्या कर रही हूँ? इस विदेश-मुँई में? मेरी ज़रूरत सब जगह है, लेकिन मैं क्या किसी के लिए भी ज़रूरी हूँ? मैं क्या सच ही कहीं, किसी के काम आ रही हूँ? अब तक मैंने अनगिनत देशों का भ्रमण किया, निवास किया। दो साल की निर्वासित जिंदगी में अनगिनत देश देख डाले। तमाम देश मुझे लेकर उत्सव मनाते हैं, मना रहे हैं। मुझे लगता है, मुझे लेकर एक किस्म की आधुनिक यात्रा या सर्कस शुरू हो गया है। देश-देश मुझे किराए पर ले जाते हैं। हज़ारों-हज़ार लोग झुंड बनाकर मुझे देखने आते हैं। सब जगहों पर मैं आत्मत्याग, आदर्श, संग्राम और अपने सपनों की बात करती हूँ। जो लोग निपीड़ित-निर्यातित हैं, मैं उनका उद्धार करना चाहती हूँ। जिस तरीके और प्रक्रिया से इंसान विषमता का शिकार हो रहा है, मैं उस तरीके को नाकाम करना चाहती हूँ! इंसान-इंसान में, औरत-मर्द में, धनी-दरिद्र, गोरे-काले, उच्च जाति-नीच जाति में और विविध धर्मों में जो प्रबल विपमता स्पष्ट नज़र आती है, उन सबको दूर करने के सिलसिले में लोग-बाग मेरे लिए तालियाँ बजाते हैं, लेकिन मेरे लिए क्या यही काम वच गया है कि मैं बड़ी-बड़ी जगहों में, बड़े-बड़े लोगों के सामने बस व्याख्यान देती फिरूँ? लोग-बाग मेरा वक्तव्य सुनकर वाह-वाह करें, खड़े होकर तालियाँ बजाएँ, सिर झुकाकर सम्मान और बड़े-बड़े पुरस्कार दें? और मैं घर लौटकर पुरस्कारों के ढेर पर, अतल स्तब्धता के अंधेरे में, अपनी तरफ पीठ किए वैठी रहूँगी? तब तक विल्कुल ख़ामोश बैठी रहँगी, जब तक कोई आकर मुझे धक्का मारकर मुझे सजग न करे? जब तक मुझे सचेतन न कर? मैंने क्या इसी तरह की जिंदगी चाही थी ऐसा वीभत्स जीवन? ऐसा मूल्यहीन जीवन? मैं औरत-मर्द के जिस समानाधिकार की वातं करती हूँ, जिस धर्महीन राष्ट्र और समाज-व्यवस्था की वातें करती हूँ, जिस गणतंत्र के वारे में बात करती हूँ, जिस मानवता और मानवाधिकार की माँग करती हूँ–यह सब तो पश्चिम के देश बहुत पहले ही अर्जित कर चुके हैं। इन सबके विरुद्ध इंसान को सचेतन करने के लिए किसी को भी मेरी ज़रूरत नहीं है। हालांकि बहतर लाग यहा नारा वलद करत ह कि सच्चाई की राह पर चलन के लिए मेरी जिंदगी का अफसाना, उन लोगों के लिए साहस जटाता है। हालाँकि नारीवादियों का भी यही कहना है कि पुरुषतंत्र के विरुद्ध जंग करने के लिए मैं उनमें ताकत भरती हूँ। हालाँकि मानववादी यह दम भरते हैं कि मेरा यह समझौताहीन संग्राम उन लोगों को बेहद प्रेरित करता है, लेकिन मुझे उन लोगों की किसी भी वात पर भरोसा नहीं होता। वे सभी लोग ज़रूर झूठ बोलते हैं। इन सभी देशों में इस किस्म की बातें करने वाले लोग, बहुत पहले ही आ चुके हैं। उन लोगों ने अपना मुकाम भी हासिल कर लिया। ये तमाम देश अव परम तृप्त और संतुष्ट है। ये तमाम देश अव कछुए की तरह लेटे-लेटे धूप सेकेंगे। किसी भी वंदे को इस वात का हक़ नहीं है, मुझे भी नहीं है कि उन लोगों के सुख-चैन-आराम में बाधा डालूँ। इन तमाम देशों को मेरी कोई जरूरत नहीं है और मुझे भी इन देशों की कतई, कोई जरूरत नहीं है। यहाँ मुझे किस हद तक अपने सिर पर विठाते हैं, किस हद तक सम्मान करते हैं, इस बारे में मेरे देश में किसी को कोई जानकारी नहीं है। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, जैसे मैं दुनिया नामक ग्रह से कहीं बाहर आ पड़ी हूँ। अपने देश के किसी बंदे से जब बातचीत होती है, जब मैं ये सारी बातें बताती हूँ कि यहाँ क्या-क्या हो रहा है. उन लोगों की आवाज काफी उत्तापहीन सनाई देती है। खासकर छोट्र' दा से जब फोन पर मेरी बात होती है। उन्हीं से मेरी सबसे ज़्यादा बात होती है। मेरी बातें छोटू' दा ठीक तरह समझ नहीं पाता या समझना नहीं चाहता। मुझे लेकर कहाँ, क्या हो रहा है, इन बातों के प्रति उसमें कहीं, कोई उत्साह नज़र नहीं आता। उसका उत्साह तो उस देश के कट्टरवादी अखबारों में मेरे बारे में प्रकाशित, चटखारेदार किस्से-कहानियों और रसीली झूठी अफवाहों में ज्यादा है।
अगर मैं बताती हूँ, “फ्रांस में यूरोपियन पार्लियामेंट की तरफ से मुझे शाखाख पुरस्कार दिया गया है। बहुत बड़ा पुस्कार है। समझे? सबको बता देना-"
मेरे उच्छ्वास पर मुट्ठी-भर गोबर उछालकर. छोटूऒ' दा ने उत्तेजित लहजे में कहा, "लेकिन यहाँ तो बहोत बुरी हालत है; 'संग्राम' अखबार में, तेरे बारे में खूब फूहड़-सी खवर छपी है; लिखा है, तूने पाँच-पाँच व्याह रचाए हैं।"
“सुनो, आज इटली में मेरा लेक्चर है। यह लेक्चर इटली के लेखकों ने आयोजित किया है। परसों में रोम से मड्रिड चली जाऊँगी। वहाँ मेरे प्रकाशक ने मेरे लिए बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया है। वहाँ से स्विट्जरलैंड चली जाऊँगी।"
"संग्राम अख़बार में तो तेरे बारे में धारावाहिक रूप से छपने वाला है। शीर्षक होगा-'तसलीमा के गुमान का भंडाफोड़' ! सारे लोग छिः छिः करके धिक्कार दे रहे हैं।''
"कौन लोग?"
"सभी लोग!"
"संग्राम अख़बार का सर्कुलेशन सबसे कम है! वह जमायते-इस्लामी का अख़बार है। मेरे बारे में इस किस्म की झूठी कहानी कुछ नई तो नहीं है। अचानक तुम उन लोगों की ख़बरों में इतना दिमाग क्यों भिड़ा रहे हो? तुम्हें तो पता है कि वे लोग झूठ-मूठ बातें लिखते हैं।"
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