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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


रुपए जब धीरे-धीरे महज कागज बन जाते हैं तो मेरा घर कपड़ों और जूतों से भर उठता है। इतनी-इतनी पश्चिमी पोशाक-भर पहनने से, क्या पश्चिमी हुआ जा सकता है? नहीं, नहीं हुआ जा सकता। पश्चिम के लोग इशारे-इशारे में यह समझाने से कभी बाज़ नहीं आते कि मैं उनके समाज़ का हिस्सा नहीं हूँ। आखिर मैं किस समाज का हिस्सा हूँ? मैं क्या, कहीं, किसी भी समाज की हूँ?

हाँ, यूरोप के तमाम देशों से मेरी किताबें प्रकाशित हो रही हैं! यह खुशी को खबर है। लेकिन मैंने यह कतई नहीं चाहा था कि 'लज्जा' निर्लज्ज तरीके से प्रकाशित हो। किसी दिन अगर सच ही कोई अच्छी-सी किताब लिख पाई, तभी उसे प्रकाशित कराऊँगी-यह कह-कहकर मैंने अपना दिमाग खराब कर लिया है। यह सब कहकर कोई फायदा नहीं। मेरी बात किसी ने नहीं सुनी। 'लज्जा' ने मुझे जांक की तरह जकड़ रखा है। चूँकि यह खबर प्रकाशित हुई है कि मैं नारिवादी हूँ। नारी-स्वाधीनता के पक्ष में वोलते हए मैंने इस्लाम के बारे में वरी-बरी बातें कही हैं, चँकि यह खबर छप चुकी है कि मेरे सिर का मोल लगाया गया है, मेरे विरुद्ध फतवा जारी किया गया है, चूँकि यह खबर फैल चुकी है कि मेरे देश की सरकार ने मेरे 'लज्जा' उपन्यास की विक्री, पठन और संरक्षण निषिद्ध कर दिया है, इसलिए पश्चिम के बुद्धिमानों ने तय कर लिया है कि उन लोगों को धर्म-विरोधी, पुरुषविरोधी, नारीवाद, आदर्शवाद वगैरह के बाद में वाद-प्रतिवाद के रंग नज़र आएँगे। हिंदुओं पर मुसलमान कट्टरवादियों के अत्याचार, भारतीय उपमहादेशों में सांप्रदायिकता के किस्से-कहानी, तथ्य-आधारित इस कथा के बारे में लोग तरह-तरह की आशा-आकांक्षा-कल्पना के शिकार हो गए हैं! किसी को भी सव्र नहीं हुआ! विभिन्न देशों में 'लज्जा' का अनुवाद कौन करेगा? वांग्ला का कोई जानकार खोज निकालना, प्रकाशकों के लिए संभव नहीं हुआ। वंगला गरीव देश की भाषा है, देशी भाषा है। गरीव देश की भाषा सीखने में भला कौन दिलचस्पी लेगा? उँगलियों पर गिने जाने लायक दो-एक लोग, कहीं-कहीं बँटे-बिखरे हुए हैं। उन लोगों को खोज निकालने की क्षमता प्रकाशकों में नहीं है। इधर बाजारों में 'लज्जा' के लिए बेचैनी बढ़ती जा रही है इसलिए बांग्ला से विभिन्न यूरोपियन भाषा में अनुवाद का इंतज़ार किसी ने भी नहीं किया। बस, अंग्रेजी 'लज्जा' से ही विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करा लिया। अंत में मामला क्या बना? बांग्ला से अंग्रेजी, अंग्रेजी से फ्रेंच, फ्रेंच से स्वीडिश, स्वीडिश से नॉर्वेजियन, नॉर्वेजियन से आइसलैंडिक! आइसलैंडिक किताब में, मेरी लिखी हुई 'लज्जा' का कितना-सा तथ्य बच रहा है, मुझे इसमें सच ही शक है, लेकिन 'लज्जा' पढ़ने के बाद क्या लोगों की मेरी किताब पढ़ने में दिलचस्पी बची रहेगी? मुझे नहीं लगता। वैसे फ्रांस में बिल्कुल अलग तरह की घटना हुई। क्रिश्चन बेस ने एक के बाद एक, मेरी सारी किताबें छापनी शुरू कर दी। शुरू-शुरू में अनुवादक की समस्या जरूर आई थी, बाद में मेरे अनुरोध पर उसने एक बंगाली को भी नियुक्त कर दिया था, लेकिन उसके फौरन बाद ही यह भी बखूबी समझ में आ गया कि उस बंगाली शख्स ने भले ही तीस वर्ष फ्रांस में बिता दिया हो, मगर फ्रेंच में एक भी शुद्ध वाक्य लिखना, उसके बूते से बाहर है। इसके बाद पार्थ प्रतिम मजुमदार की सलाह पर जिस प्रलय राय नामक शख़्स को अनुवादक के तौर पर लेने पर मैंने जोर दिया, उसी प्रलय राय को, मेरे प्रोत्साहन के वावजूद, क्रिश्चन उसे धत्ता बताने को लाचार हो गईं। आखिरकार सरवर्न विश्वविद्यालय में बांग्ला प्रोफेसर, फिलिप वेनोआ का नाम सामने आया। फिलिप वेनोवा फ्रेंच नौजवान! क्रिश्चन ने उसे मेरे अनुवादक के तौर पर लगभग स्थायी तौर पर अपने कब्जे में ले लिया। फिलिप ने ढेरों रुपयों की मांग की। एक भाषा से अन्य भाषा में अनवाद के लिए कोई भी अनुवादक इतने ज्यादा रुपयों की माँग नहीं करता, लेकिन अगर प्रतियोगिता का मामला न हो तो ऐसा ही होता है। प्रकाशक के लिए फिलिप के अलावा और कोई गति नहीं थी। फिलिप दो सालों तक कलकत्ता में रहा था, आलियांस में नौकरी करता था। बांग्ला भाषा उसने अच्छी तरह सीख ली थी। वाक्यों में अलंकारों का इस्तेमाल वह अच्छा ही करता था। देखने में सीधा-सादा, वामपंथी, उदासीन, मृदुभापी जरूर था। पता नहीं वह समलैंगिक था या इसी किस्म का कोई-न-कोई रहस्य उसके व्यक्तित्व से लिपटा हुआ था। चलो, फ्रेंच भापा का समाधान तो हो गया, लेकिन समाधान क्या वाकई हो पाया? कोई भी प्रकाशक कविता-संग्रह छापने को राजी नहीं होता, लेकिन मेरी प्रकाशक मेरी कविता-संग्रह छापने की जिद ठान वैठी थी। फिलिप ने साफ़ मना कर दिया। वह कविताओं का अनुवाद नहीं करेगा। उसकी सलाह पर फ्रांस भट्टाचार्य मंच पर अवतरित हुई। फ्रांस भी सरवन में बांग्ला की टीचर! प्रवासी बंगाली, कवि लोकनाथ भट्टाचार्य की पत्नी थी! फ्रांस ने मेरी कविताओं का अनुवाद कर डाला। 'उन अन्ने मि' यानी ‘अन्य जीवन' नामक कविता-संग्रह भी स्टॉक से प्रकाशित हो गया। इस किताव के प्रकाशन के फौरन बाद ही दानियल कभी-कभी उन कविताओं का फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवाद करके सुनाती थी। एक कविता का अनुवाद सुनकर मैं बुरी तरह चौंक गई।

कविता कुछ यूँ थी- “तुम्हें आंचल में अच्छी तरह गठिया लिया है। फिर भी वार-वार तुम हीनता पर रोई हो!" इसका फ्रेंच अनुवाद यूँ था- "तुम्हें मैंने अपने बालों के गुच्छों में बाँध लिया है। इसके बावजूद, तुम कितने हीन हो, यह जानकर मैं रो देती हूँ।" वस, उसी दिन से अनुवाद के बारे में मेरा आग्रह, उत्साह उड़ गया। मुझे यही लगा कि ग़लत अनुवाद के बजाय, अनुवाद न हो, यही बेहतर है। बाद में, मैंने फिलिप वेनोआ से वातों ही बातों में कहा कि फ्रांस भट्टाचार्य शायद मेरी बांग्ला कविता ठीक तरह समझ नहीं पाईं। जब मैं अपने देश में थी, मेरा लहजा इतना विनयी नहीं होता था। विनय का यह अति नरम, अति फूहड़ लहजा, मुझे पश्चिम में आकर ही रटना पड़ा है। रटी-रटाई आवाज़ और सीखे-पढ़े लहजे में बात करना चाहिए, ताकि सुनने में भला लगे। अपनी मामूली-सी दुविधा भी रटी हुई आवाज़ और तीखे लहजे में व्यक्त करना चाहिए, बेहद कठिन और कठोर लहजे में हरगिज नहीं! कोई सिद्धांत या फैसला भी इस लहजे में जाहिर नहीं करना चाहिए, लेकिन मैंने देखा है कि नरम लहजे की भी कभी-कभी कठिन प्रतिक्रिया होती है। पता नहीं फिलिप ने फ्रांस के सामने मेरी बात का क्या अनुवाद किया, फ्रांस मारे गुस्से के आग हो आई और उसने क्रिश्चन से यह कहा कि मुझे उसका अनुवाद पसंद नहीं आया। क्रिश्चन ने भी उतनी तीखी उगलते हुए मुझसे कहा कि फ्रांस ने इतने एहतियात से अनुवाद किया, उसकी मुझे यूँ निंदा-आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसके बाद, अनुवाद या अनुवादक के बारे में अपना कोई मंतव्य जाहिर करने या यूँ-चपड़ करने में, मुझे डर लगने लगा है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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