जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इयुस्तेरो नामक द्वीप बाल्टिक सागर में तैरता हुआ, जिस सागर में कोई ज्वार-भाटा नहीं उठता। वाल्टिक के इन द्वीपों में साल में दो-एक महीने छुट्टियाँ गुजारने के लिए घर-मकान बने हैं। स्वीडिश लोगों को प्रकृति के करीबतर रहना बेहद प्रिय है इसलिए यहाँ लगभग हर परिवार के पास कम-से-कम एक अदद ग्रीष्मकालीन घर ज़रूर होता है। लिलियाना का ग्रीष्मकालीन घर सुर्ख लाल रंग का था। उस घर से कुल दस क़दम पर सागर! मुझे उस घर का नक्शा समझाकर, वहाँ की रसोई, ड्रॉइंगरूम, लिखने का कमरा, खेलने का कमरा, ऊपर के माले में बेडरूम दिखाया गया। उसके बाद अपने हाथ से कॉफी बनाकर पुलिस वालों समेत सभी को कॉफी पिलाकर, लिलियाना चली गयी। मैं उस निर्जन द्वीप में हतप्रभ सी वैठी रही, मानो यह कोई पिटकाइन द्वीप हो। यहाँ दुनिया से कोई सरोकार नहीं था। मुझे लेकर यहाँ जो वाउंटी जहाज़ आया था, मानो उसे जला दिया गया हो। मेरी वापसी का अब कहीं कोई उपाय नहीं रहा। इस द्वीप में कोई बंदरगाह नहीं था। यहाँ कोई जलयान या वायुयान नहीं रुकता। प्रशांत महासागर के ऊपर एक आग्नेयगिरी लावा उठता हुआ! खड़े-खड़े पहाड़। जीव-जंतुओं से भरे, उस ऊबड़-खाबड़ लावा के बीच मैं अटकी रह गयी हूँ। यहाँ तो चाहे जितना भी चीखो-चिल्लाओ, किसी को भी सुनायी नहीं देगा। सचमुच के पिटकाइन द्वीप में पचास से भी कम लोग वसते हैं। सबसे करीबतम द्वीप की दूरी दो हजार किलोमीटर थी। मेरे अंतर्मन से आवाज निकली-इयुस्तेरो! तुम क्या पिटकाइन को पहचानते हो? तुम दोनों रिश्ते में क्या भाई-बहन हो?
कहीं कोई आवाज़ नहीं। बीच-बीच में अपनी ही साँसों की आवाज़ सुनकर मैं चौंक-चौंक जाती थी। यहाँ दिन-दिन भर में क्या करूँगी, मुझे नहीं पता। रात-रात भर अगर नींद न आयी, तो मैं क्या करूँगी, मुझे नहीं पता। यहाँ लिखना क्या खाक होगा? रात होते ही मेरे तन-बदन में कँपकँपाता हुआ खौफ़ फैल गया। मुझे भूतों से डर नहीं लगता। हाँ, चोर-डकैतों का भय, बलात्कारी का भय, खूनी का भय, जंगली जीव-जंतुओं का भय, साँपों का भय मुझे ज़रूर है। ऐसे ही डेरों भय ने मुझे घेर लिया। तमाम चीन्ही-अचीन्ही दहशत मेरे इर्द-गिर्द अद्भुत-अद्भुत आवाज़ों में मुझे डराती रही। कहीं, कुछ होने का खौफ़, न होने का खौफ़ और भरी-भरी शून्यता का खौफ़! मेरे लिए, घर में अकेली रहना असहनीय है। बेहद तकलीफदेह! दिन का वक्त न हो, आसमान और समुंदर देखते-देखते घास पर नंगे पाँव टहलते-टहलते, खाली दिमाग सफेद पन्ने पर कलम थामे बैठे-बैठे किसी तरह कट भी जाता है। लेकिन रात? रात गुज़ारना मुश्किल होता है। रात के वक्त सिर्फ करवटें बदलना या उठकर बैठे रहना...रात के वक्त तो मानो साँसें अटकने लगती हैं। रात को धड़कनें तेज़ हो उठती हैं। बगल के कमरे में अगर पुलिस मौजूद हो या कोई सहदय प्राणी, तो आराम से नींद आ जाती। पूरे घर-मकान में निचाट अकेले सोने की मुझे आदत नहीं है। नीचे और ऊपर के माले में कहीं, कोई नहीं है, इस ख़याल से ही तन-बदन बर्फ़ हो आता था।
पुलिस के लोगों ने बगल का एक घर किराए पर ले लिया। डायना वुल्फ के घर के आँगन में अलग से एक आउट-हाउस किस्म का एक घर था। वैसे लिलियाना का घर काफी बड़ा था। सब लोग वहीं रह सकते थे। अलग से कोई घर किराए पर लेने की क्या ज़रूरत पड़ गयी, मेरी समझ में नहीं आया। वे लोग जब स्वीडिश भाषा में बातचीत करते थे, ज़ाहिर है कि उनकी बातचीत का एक शब्द भी मेरे पल्ले नहीं पड़ता था। मुझे सारी बातें बताना वे लोग ज़रूरी भी नहीं समझते थे। उनके लिए मैं एक 'ऑब्जेक्ट' थी और वे लोग उस ऑब्जेक्ट की पहरेदारी की नौकरी करते थे। मैं उन लोगों की मित्र नहीं थी, इसलिए वे लोग मेरे साथ गपशप क्यों करते, पुलिस वालों ने ही बताया कि उन लोगों के लिए मेरे साथ एक ही घर में रहने का नियम नहीं है। उन लोगों के मन में नियम बद्ध होकर चलने का अपूर्व आग्रह होता है। जैसे मुझे नियम तोड़ने की आदत है, वैसे ही उन लोगों को नियम बद्ध होकर चलने की आदत है। लेकिन इन दिनों हम एक-दूसरे के साथ-साथ चल रहे हैं। पुलिस ने लिलियाना के घर में मशीन लगा दी। अगर मुझे कभी कोई परेशानी हो, मैं उस मशीन का बटन दबा दूं, लोग फौरन हाज़िर हो जाएंगे। मशीन के बटन पर उँगली रखे रहने के बावजूद, मैं बटन नहीं दबाती। सारी रात मेरी उँगलियाँ उसी बटन पर रहती हैं! दुविधाग्रस्त उँगलियाँ!
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