जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
दुविधा मेरी उँगलियों से होती हुई समूचे तन-बदन में फैल जाती है। मैं खुद ही अपनी पहचान में नहीं आती। दिनोंदिन क्या मैं और तरह की होती जा रही हूँ? जो भी काम करने की इच्छा होती है, मैं नहीं कर पाती। अपनी इच्छा की बात मैं किसी को बता भी नहीं पाती। असल में मेरी नाक में एक नकेल डाल दी गयी है, वह नकेल अभी भी गैबी ग्लेइसमैन के हाथ में थी। स्वीडन पेन क्लब का हर सदस्य यही चाहता था कि मेरी नाक में नकेल पड़ी रहे और वह नकेल यहीं के किसी बंदे के हाथ में हो यानी मेरी गतिविधियों पर कोई न कोई नियंत्रण रखे। वैसे वह नकेल, स्वीडन सरकार के हाथ में ही हो सकती थी, क्योंकि लोग-बाग यही जानते थे कि सरकार ही मेरा लालन-पालन कर रही है। वजह चाहे जो भी हो, मेरी नकेल सरकार के हाथ में नहीं थी। किसी लेखक का जिम्मा. अगर लेखक ही ले. तो शोभा देता है। यहाँ तो मुझे सरकार की चुटिया तक नज़र नहीं आयी। कभी-कभी सिर्फ गैबी की ही आवाज़ कानों को सुनायी दे जाती है। वह आवाज़ तभी मुझ पर अपने दाँत गड़ाती है, जब वह मेरी नकेल कुछ ढीली करना चाहता है। वह मेरी नकेल तभी ढीली करता है, जब कोई उसे भरपूर घूस खिलाकर, मुझसे इंटरव्यू पाने की कोशिश करता है। मुझसे मिलने का प्रमुख उद्देश्य होता है-परानी दोस्ती और साक्षात्कार का उद्देश्य-प्रकाशन! घूस कई किस्म की हो सकती हैं-क़ीमती रेस्तराँ में खाना खिलाना, उसके अभिभावक होने के दायित्व की तारीफ करना, विदेश में आयोजित किसी कार्यक्रम में आमंत्रित करना, कीमती हवाई टिकट भेजना, पाँच सितारा होटल में ठहराने का इंतज़ाम करना, किसी विदेशी पत्रिका में लिखने का आमंत्रण वगैरह-वगैरह!
“जाओ, नॉर्वे से कोई बहुत बड़ा पत्रकार आया है, हो आओ। जाओ, फ्रांस से तुम्हारा प्रकाशक, तुमसे मिलने आया है, मिल आओ।"
इसी तरह चलता रहा!
चूँकि इस तरह का रवैया मैं रोकना चाहती थी और जब मैं गैबी से छुटकारा पाने के लिए तड़प रही थी, शायद इसीलिए मुझे द्वीपांतरित कर दिया गया।
"अब मैं कहाँ जाऊँ?"
"जिस द्वीप में हो, उसी द्वीप में रहो।"
"दिन कैसे गुज़ारूँ?"
"लिखो-पढ़ो! ढेरों चिट्ठियाँ आयी हैं, मैं द्वीप के ठिकाने पर भेज देता हूँ।"
"उसके बाद?"
"उसके बाद और क्या?"
"खाऊँ क्या?"
"द्वीप में बाज़ार है। खुद जाओ, बाज़ार करो। खुद खाना पकाओ। अपना पकाया खाना, खुद खाओ।"
"द्वीप से बाहर न जाऊँ?"
"ज़रूरत पड़ी तो शहर में बुला लूँगा। पुलिस तुम्हें ले आएगी।"
"और अगर मेरी आने की इच्छा करे?"
'इच्छा? कैसी इच्छा? शहर में फालतू घूमने-भटकने की इच्छा? कमाल है! तुम्हारे पास वक्त कहाँ है? अब तो तुम्हें काफी सारा लिखना है। दुनिया भर की निगाहें तुम्हारे लिखने पर लगी हुई हैं..."
“अच्छा?"
“हाँ, यही सच है।"
"और अगर मेरा लिखने का मन न करे, तो?"
"मन क्यों नहीं करेगा? सुनो, ऐ लड़की जो मौका तुम्हें मिला है, उसका फ़ायदा उठाआ। ऐसा मौका बाद में नहीं भी मिल सकता है।"
'न मिले! क्या फर्क पड़ता है?"
"लगता है, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।"
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