जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
राष्ट्रसमूह के शीर्प सम्मेलन के साथ-साथ एन.जी.ओ. लोगों का भी सम्मेलन आयोजित किया गया था। मुझे उस सम्मेलन में भाषण देना पड़ा! लगभग बारह हज़ार लोगों के सामने! मेरे लिए वह सबसे बड़ी जनसभा थी। उस सभा में उत्तरी अफ्रीका की चंद लड़कियों ने मुझ पर यह आरोप लगाया कि मैंने इस्लाम की निंदा की है। इन दो-एक मुसलमान लड़कियों को छोड़कर बाकी लोगों ने खड़े होकर मेरे प्रति श्रद्धा प्रदर्शित की, अब्बू ने यह देखकर भी अनदेखा कर दिया। समूची रात उन्होंने होटल के कमरे में जागकर गुज़ार दी। इधर मैंने सिगरेट का नशा शुरू कर दिया था। अब्बू के साथ में ज़्यादा वक्त नहीं गुज़ार पाती थी। मुझे आड़ में जाकर सिगरेट पीनी पडती थी। वैसे मझे उनके सामने पीने में भी कोई एतराज नहीं था. लेकिन अब्बू को संकोच होगा, यह सोचकर मैं उनसे दूर जाकर, सिगरेट पीती थी। जर्मनी में भी उन्हें अनिद्रा का रोग घेर रहा था। जर्मनी में तो वे अपने कमरे में रहने के बजाय सारी रात मेरे कमरे में बैठे बैठे गुज़ार दी। मैंने गौर किया कि वे होटल कमरे से ही, बार-बार देश फोन करने की कोशिश करते रहे। अपने होटल कमरे से दूर विदेश में फोन करने से भंयकर बिल आता है, यह बात अब्बू को बार-बार समझाने के बावजूद कोई लाभ नहीं हुआ! वे 'अवकाश' फोन करते रहते थे आर भाई से आरोग्य-वितान, मरीज, के बारे में तो खैर-खबर लेते ही थे, गाँव की ज़मीन पर फसल उगने, फसल काटने वगैरह के बारे में बतियाते हुए, काफी वक्त खर्च कर डालते थे। फोन-बिल कई हज़ार जर्मन मार्क! ये रुपए मैंने प्रकाशक को नहीं चुकाने दिए। यह बिल मैंने खुद चुकाया, लेकिन अब्बू के लिए पाँच हज़ार मार्क और पांच टके में कोई फर्क नहीं था। देश वापस लौटने के लिए अब्ब पागल हो उठे थे। उनका यह पागलपन रोकने की कोई ताकत मुझमें नहीं बची। उन दिनों में समूचे इंग्लैंड-टूर पर थी। ब्लैकपूल में श्रमिक नेताओं के समाजतांत्रिक सम्मेलन में आमंत्रित की गई थी। मैं अब्ब को वहाँ भी ले गई। वहाँ भी वे उदास. अनमने! जब मैंने उन्हें हीथ्रो हवाई अड्डे पर विमान में सवार करा दिया, तो वे चंगे हो उठे। इस तरफ अब्बू का विमान उड़ गया, उधर मेरा विमान दूसरी तरफ जाने के लिए तैयार खड़ा था। अब्बू के जाने के बाद, हीथ्रो एयरपोर्ट में एक खाली कुर्सी पर बैठकर मैं वेतहाशा रोती रही। अब्बू ने क्या मेरी यह रुलाई, बूंद-भर भी महसूस की होगी? या उनके लिए वह देश, देश में मौजूद मकान, उनकी डॉक्टरी, उनका जमी-जमा, उनके रुपए-पैसों का मोल ही ज़्यादा है? बहरहाल अब्बू को मैं बाँधकर नहीं रख पाई। ऐसे निर्जन जीवन में भला कौन मरने आता है? मैं भी आखिर कितने दिनों इस नकली जिंदगी का बोझ ढोती फिरूँगी? इन सबका जवाब कोई नहीं जानता।
मुझे देखने के लिए भाई जर्मनी आ पहुँचे। वे वैध वीसा लेकर आए हैं, फिर भी उन्हें इस देश में घुसने ही नहीं दिया जा रहा था। वे जहाँ से आए थे, उन्हें दुबारा वहीं भेज देने की साजिश की जा रही थी। कानूनी वीज़ा होने के बावजूद, ऐसा बर्ताव क्यों? लाख पूछने पर भी, भाई को इसका सही, जवाब नहीं मिला। जिन दिनों मैं किसी अनजानी गहरी हताशा में गर्क होती जा रही थी, उन्हीं दिनों भाई आ पहुँचे थे। उन्होंने मेरे अथाह ख़र्च पर रोक लगाई मैं भी काफी हद तक उनके प्रभाव में आ गई। रसोई-पानी की जिम्मेदारी भाई ने ही संभाल ली। उनकी स्वभावगत् कंजूसी मेरे घर में भी चलने लगी। अब गृहस्थी भाई के हाथों में थी। गृहस्थी का खर्च घटते-घटते लगभग शून्य तक आ पहुँचा। भाई जब यहाँ थे, उन्हीं दिनों मेरे ब्लाडर का ऑपरेशन हुआ! मुझे यूरिनरी तकलीफ बार-बार क्यों होती है, इसकी जाँच करते हुए, यूरोलॉजिस्ट को पता चला कि मेरे ब्लाडर के एक कोने में, एक छोटी-सी थैली बन गई है, जिसका अंग्रेजी नाम है, डाइवर्टिकुलम! डॉक्टर वह डाइवर्टिकुलम काटकर निकाल देना चाहता था। बहरहाल उसी मुताबिक ऑपरेशन भी हो गया। मझसे कहा गया कि इसे काटकर निकाल देने के बाद फिर कभी इंफेक्शन नहीं होगा। लेकिन, अभी महीना-भर भी नहीं गुजरा कि फिर पहले की तरह इंफेक्शन उभर आया। अब यह बताया गया कि ऑपरेशन की ज़रूरत ही नहीं थी। बहरहाल जब आँखों के सामने से पर्दा हटा, तब जाकर यह बात समझ में आई। यह पाँव क्यों फूलने लगा है? फूलने की वजह का पता नहीं चल रहा है। अगर दिल ठीक है, किडनी ठीक है तो आखिर क्या ठीक नहीं है? कहा गया कि यह लिम्फोएडेमा हो सकता है! आकाशचारी होने के कारण मुझे शायद लिम्फोएडेमा हो गया है। चूंकि आसमान की ऊँचाई पर हवा का दबाव कम होता है, वहाँ ज़्यादा देर-देर तक वक्त गुजारने से पाँव फूल जाते हैं। अगर पाँव इसी तरह फूला रहा तो मालिश का इंतज़ाम करना होगा। मुझे कसे हुए मोजे पहनने की सलाह दी गई, लेकिन यह मुझसे नहीं हो पाया। मालिश भी बस, दो दिन कराई उसके बाद न मालिश कराई, न मोजे पहने। इधर पूरे तन-बदन का एक्स-रे कराने के बाद, डॉक्टर ने कहा कि चूँकि मेरी रीढ़ बिल्कुल सीधी है, इसीलिए बदन का पूरा वजन पैरों पर पड़ता है और पाँवों की हड्डी और तलवे बराबर होते जा रहे हैं। इसलिए जूते के अंदर तलवे के आकार का, चमड़े का एक 'सपोर्ट' बनाना होगा, जिसका बीच का हिस्सा ऊँचा होगा। चलो, वह भी बनवा लिया गया, लेकिन पहनता कौन? जैसे दो दिनों बाद मैंने मोजे फेंक दिए, उसी तरह दो दिनों बाद, जूतों का सपोर्ट भी एक किनारे उछाल दिया। भाई को वह देश दिखाने का मन हो आया। कम पैसों में पूर्तगाल और स्पेन दिखा लाईं मैड्रिड, ग्रनाडा, करडोबा, 'सिविलि, लिसबॅन की भी सैर करा लाई। मैं पुलिस की किसी भी पों-पूं के करीब भी नहीं फटकी। भाई की फ्रांस जाने की बेहद इच्छा थी मगर नहीं गई, क्योंकि क्रिश्चन बेस को अगर पता चल जाता कि मैं चुपके-चुपके फ्रांस आई हूँ और पुलिस के बिना ही मौज में घूमती-फिरती रही तो वह आग बबूला हो उठेगी। वैसे यह मेरा ख्याल-भर था कि वह भड़क जाएँगी। असल में उसे शायद पता ही नहीं चलता, अगर पता चल भी जाता तो गुस्से से आग बबूला हरगिज नहीं होती, बल्कि खुश होती! भाई फ्रांस नहीं देख पाए। वे कुछेक सस्ती चीज़े ख़रीदकर देश लौट गए। भाई के जाने के बाद मैं बेहद अकेली हो गई।
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