जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
गेन्ट विश्वविद्यालय में अब्बू एक कांड भी कर बैठे। प्रोटोकल तोड़कर वे मंच पर आ पहुँचे और उन्होंने व्याख्यान भी दे डाला। पूरा गेन्ट विश्वविद्यालय अचरज से मुँह बाएँ देखता रहा। यह वेल्जियम का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है। डॉक्टरेट प्रदान करने के लिए कमाल का आयोजन! उसी पुरानी रीति से ही डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई। यहाँ रसायन विज्ञान, पदार्थ विज्ञान व विज्ञान की विविध शाखाओं में नोबेल पुरस्कार विजेताओं को विश्वविद्यालय की तरफ से डॉक्टरेट का सम्मान मिला है। उन लोगों के साथ अकेली मैं ही थी, जिसे नोवेल पुरस्कार नहीं मिला था। मुझे डॉक्टरेट की सम्मानित उपाधि प्रदान की गई और मुझे ही डॉक्टरेट प्राप्तकर्ताओं में पहली और एकमात्र वक्ता बनाया गया। मेरे वक्तव्य के वाद, रेक्टर जब धन्यवाद ज्ञापित कर रहे थे, उन्होंने मेरे अब्बू को भी अलग से धन्यवाद दिया। अब्बू ने धन्यवाद का मर्म नहीं समझा, ऐसा नहीं था, लेकिन वे अपनी सीट से उठे और चलकर मंच तक पहुँच गए। मैंने आँखों के इशारे से और दाँत पीसते हुए मना भी किया कि वे ऐसी मूर्खता न करें और अपनी सीट पर जाकर बैठें, लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने सोचा कि विश्वविद्यालय की तरफ से उन्हें कुछ बोलने को बुलाया जा रहा है। माइक के सामने दृढ़ मुद्रा में खड़े होकर उन्होंने उन सभी लोगों को जिन लोगों ने उनकी बेटी को यह विरल सम्मान दिया, धन्यवाद दिया। धन्यवाद देकर, वे दनदनाते हुए, मंच से उतर भी आए। मैं सिर झुकाए बैठी रही। उसके बाद भी मैंने सिर नहीं उठाया। कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैंने अब्ब को डपटने में भी देर नहीं की। मैंने उन्हें डपटकर कहा कि उन्होंने मेरा सम्मान चौपट कर दिया। उस वक्त उन्होंने सन्तरे के रस का एक गिलास, हाथों में थाम रखा था। मेरी डाँट सुनकर उन्होंने वह गिलास और सख्ती से कस लिया और अभ्यागत् लोगों की भीड़ में अकेले खड़े रहे। नियम तोड़कर व्याख्यान देने के अपराध के लिए मैंने रेक्टर से माफी माँगी।
रेक्टर ने कहा, "नहीं! नहीं! ऐसी कोई बात नहीं! उन्होंने तो पिता के तौर पर अपनी बेटी के प्रति अपना उत्साह प्रकट किया। पूर्व के देशों में अभी भी पुत्री के प्रति पिता का इस प्रकार के उत्साह का भाव थोड़ा-बहुत बचा हुआ है! पश्चिम में तो हम सभी, नियम के गुलाम बन बैठे हैं। परन्तु आपके अब्बू का ज़रा अलग तरह का रंग-ढंग देखकर नियम तोड़ते देखकर, उत्साह जाहिर करते देखकर, हमें अच्छा ही लगता है। सव कुछ वेहद मानवीय लगता है।"
मैंने अब्बू को रेक्टर की यह बात नहीं बताई। उन्होंने होटल के कमरे में समूची रात जागकर बिता दी। सुबह जब मैं उनके कमरे में गई, वे कुर्सी पर बैठे हुए थे। उनका बिस्तर बिल्कुल सलवटहीन!
रात में उन्हें नींद आई या नहीं, यह पूछने पर उन्होंने जवाब दिया, "मैंने बहुत बड़ी भूल कर डाली न? इस तरह नियम तोड़ा? वे लोग तुम्हें बुरा-भला कह रहे होंगे।"
अब्बू की यह नासमझी देखकर मुझे बेहद गुस्सा चढ़ा तो था। परंतु रेक्टर ने जो कहा था, मैंने उनके सामने दुहरा दिया। इसके बावजूद उनका अपराधबोध दूर नहीं हुआ।
डेनमार्क पहुँचकर भी अब्बू ने वही कांड दुहराया।
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