जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल न कोई घर, न द्वार! किस देश में रहना है, यह भी तय नहीं है। किस भाषा मैं बात करनी है, यह भी नहीं जानती। मेरी जीविका क्या है, जिंदगी कैसे चलेगी, कुछ-भी मालूम नहीं! मैं कब अपने देश, अपने घर लौटूंगी, नहीं पता। जो लोग मुझे धूम-धाम से ले आए थे, उनमें से किसी को भी इस बात की फिक्र नहीं है। मैं कहाँ हूँ, क्या कर रही हूँ, मर गई या जिंदा हूँ, इस बारे में भी कोई परेशान नहीं होता। मेरी अपनी सोच, झरे हुए पत्तों की तरह, सूखे हुए फूलों की तरह, दिनोदिन निःसंग और निश्चल होती जा रही हूँ। रुपए-पैसे पानी की तरह ख़त्म होते जा रहे हैं! ख़त्म होते-होते जब मैं शून्य तक पहुँच जाऊँगी, तब क्या होगा, जव यह ख्याल आता है, तो मेरे दिमाग में जैसे अदृश्य सूइयाँ-सी चुभ जाती हैं। सोल को मैंने खो दिया, मैं समझ गई हूँ। जर्मनी से जब मैं स्वीडन लौटी तो मैंने देखा, अपना जो एपार्टमेंट मैं माइब्रिट के जिम्मे सौंप गई थी, उसने छोड़ दिया था और किसी छोटे एपार्टमेंट में चली गई थी। उसने सफाई दी कि उसे इतने बड़े घर की जरूरत नहीं थी। वह अकेली प्राणी है, किसी छोटे घर से ही उसका काम चल सकता था। मैंने भी उसकी बातों में हामी भरी! सच तो यह था कि स्टॉक-होम शहर में माइब्रिट को किसी छोटे एपार्टमेंट की ही ज़रूरत थी। यह ज़रूरत जितनी माइब्रिट को नहीं थी, उससे कहीं ज़्यादा पेर को थी! माइब्रिट ने ऐसी हरकत पेर की वजह से ही की। उसने मेरे विश्वास का इस्तेमाल किया। इससे मुझे कोई लाभ नहीं हुआ, लाभ उसे ही हुआ! अब उसने छोटा-सा एपार्टमेंट किराए पर ले लिया है, जहाँ कभी-कभार पेर आकर रहा करेगा, मैं नहीं। स्टॉकहोम शहर में कोई एपार्टमेंट किराए पर लेने के लिए इंसान को पंद्रह वर्ष इंतजार करना पड़ता है, लेकिन मुझे एपार्टमेंट कुल पंद्रह दिनों में ही मिल गया था। अपनी ही लापरवाही से मैंने वह एपार्टमेंट गंवा दिया। उसके बाद स्टॉकहोम में रहना मेरे लिए संभव नहीं हुआ। शहर से दूर, मुझे सुयेनसन के घर में रहना पड़ा। कुछ ही दिनों में मैंने वह एपार्टमेंट छोड़ दिया। अब शौक से ख़र्च बचाना, भला किसे पसंद आता है? मुझे 'स्पेस' की ज़रूरत होती है, वर्ना मुझं घुटन होने लगती है। सुयेनसन ने मुझे स्पेस तो दिया, लेकिन क्या प्यार भी दिया? असल में उसने एक किस्म का हिसाब किया था और उस हिसाव के तहत रहते-सहते, मैं अंदर ही अंदर हॉफ उठी थी।
प्यार तो जन्म से ही चाहिए। प्यार अगर सुनहरे वाल, गोरी चमड़ी में न भी हो, लेकिन काले बाल, बादमी चमड़ी में ज़रूर होता है। खैर, प्यार वालों या त्वचा के रंग में नहीं वसता, उस वक्त तक मैं नहीं जानती थी। शुरू-शुरू में इतालवी, स्पैनिश या पूर्व-यूरोपीय मर्दो को देखकर, वे आत्मीय लगे, लेकिन बाद में अहसास हुआ, यह मेरी गलतफहमी थी। आत्मीय होना, वालों या त्वचा के रंग या चाल-ढाल-भंगिमा पर निर्भर नहीं करता। मैंने गोरे-सुनहरों पर अपना सारा प्यार लुटाकर देख लिया। उसके बाद भी मन 'यहाँ नहीं-यहाँ नहीं' की रट लगाए रहा। आकुल होकर मैंने किसी बंगाली की खोज की, मानो बांग्ला भापी बंगाली ही मुझे परदेस के इन सभी दुखों से मुक्ति दिला सकता है, कोई बंगाली ही मुझे पिता का प्यार देगा, माँ की ममता देगा, भाई का स्नेह देगा, बहन का प्यार देगा। मेरे लिए किसी बंगाली की तलाश आसान नहीं थी। सुरक्षा-कारणों से बाहरी लोगों के आस-पास भी जाने की अनुमति नहीं थी। स्वीडन में वासु आलम, नामक किसी सज्जन ने स्वीडिश पुलिस, विदेश मंत्रालय, लेखक संगठन के नाम पत्र लिख-लिखकर, झड़ी लगा दी। अनर्गल अनुरोध, विनय, फर्माइश-एक बार मुझसे भेंट करा दिया जाए, लेकिन किससे भेंट करूँ? स्वीडन में बसे बंगाली वद्धिजीवी लोगों से!
एक दिन बुद्धिजीवी लोगों का प्रसंग छिड़ते ही, मैंने आर्ने रूथ नामक एक स्वीडिश वुद्धिजीवी से कहा, “स्वीडन में कोई बंगाली वुद्धिजीवी भी मौजूद है, मैंने तो यह कभी नहीं सुना-'
आर्ने आसमान से गिरे!
बहरहाल आर्ने का आग्रह और बांग्ला के प्रति मेरा तीखा खिंचाव रंग लाया। आर्ने मुझे वासु आलम के यहाँ खाने की दावत पर ले गया। बासु आलम! बांग्लादेशी हस्ती! वे जनाब खुद सजे-धजे और अपनी फिनी-बहुरिया और बंगाली फिनी बच्चों को सजा-संवारकर मेरे इंतज़ार में खड़े मिले। बंगाली व्यंजनों का विराट आयोजन! वह सव पकवान देखकर मेरे मुँह में बरबस ही पानी आने लगा। स्वीडन की धरती पर कदम रखने से लेकर अब तक मैं उन पकवानों के लिए तरस गई थी। मेरे साथ बहुत-सी पुलिस देखकर, अपने को कुछ बड़ा व्यक्ति मानते हुए महाखुश बासु, कुछ-कुछ वोलते रहे। वे एमिग्रेशन कार्यालय में किसी ऊँचे पद पर नौकरी करते हैं। वे बुद्धिजीवी हैं। वे फोल्क पार्टी के सदस्य भी हैं। उनके यहाँ स्वीडिश मंत्री, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकारों का आना-जाना है। बहरहाल उन्हें देख-सुनकर मुझे तो यह शक होने लगा कि यह बंदा सचमुच पढ़ा-लिखा शिक्षित है भी या नहीं।
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